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[ पट्टावली-पराग
.... सं० १२२३ के द्वितीय भाद्रपद वदि १४ को समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर जिनचन्द्रसूरि स्वर्गवासी हो गए। (८) श्री जिनपतिसूरि
जिनपतिसूरि का जन्म १२१० विक्रमपुर में हुआ था पोर इनकी दीक्षा सं० १२१७ के फाल्गुन सुदि १० को और सं १२२३ में १४ वर्ष की उम्र में इन्हें क्षुल्लक नरपति से जिनपतिसूरि बनाकर जिनचन्द्रसूरि के पट्टपर प्रतिष्ठित किया था।
जिनचन्द्रसूरि के पाठक श्री जिनभक्त मुनि को प्राचार्य-पद देकर "श्री जिनभक्ताचार्य" बनाया, वहां के समुदाय के साथ सा० मानदेव ने हजार द्रव्य खर्च कर यह महोत्सव किया था। उसी स्थान पर जिनपतिसूरिजी ने पद्मचन्द्र भौर पूर्णचन्द्र को श्रमणवत दिये ।
सं० १२२४ में विक्रमपुर में प्रथमनन्दी में गुणधर, गुणशील, दूसरी में पूर्णरथ, पूर्णसागर और तीसरी नन्दी में वीरचन्द्र तथा वीरदेव को दीक्षा दी और जिनप्रिय को उपाध्याय-पद, १२२५ में भी जिनसागर, जिनाकरादि की वहां दीक्षाएं हुईं, फिर विक्रमपुर में जिनदेवगणि की दीक्षा हुई।
में अधिष्ठायक की मूर्ति खुदवालो। श्री पूज्य का आदेश होते ही श्रावकों ने वैसा ही किया। बड़े ठाट के साथ श्री पूज्य ने वहां प्रतिष्ठा की और "अतिबल" ऐसा अधिष्ठायक का नाम दिया, श्रावकों ने उसको बड़े-बड़े भोग चढ़ाना शुरु किया। "अतिबल' भी श्रावकों का मनोवांछित पूरने लगा। .. पाठकगण ऊपर पढ़ आये हैं कि जिनचन्द्रसूरि ने जिस देवता को मांसबलि न लेने का प्रतिबोध दिया था, उसका नाम “अधिगालि" था और जात की वह देवी थी, परन्तु पार्श्वनाथ के मन्दिर में स्तम्भ पर प्रतिष्ठित कर आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि के भक्तों ने उसको "अतिबल" नामक देव बना लिया और जिनचन्द्रसूरिजी से उसकी प्रतिष्ठा भी करवा ली। पाठक महोदयः इस प्रकार के चमत्कारों की बातें आपने किसी अन्य गच्छ की गुर्वावलियों में नहीं पढ़ी होगी। कभी आपको दिल बहलाने के लिए नवल कथा पढ़ने की इच्छा हो जाय तो एक आध खरतरगच्छ की गुर्वावली पढ़ लेना सो आपकी इच्छा पूरी हो जायगी।
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