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[ पट्टावली-पराग
"११५६ में पौर्णमिक, १२०४ में खरतर, १२१३ में अंचल, १२३६ में सार्द्धपौर्ण मिक, १२५० में त्रिस्तुतिक १२८५ में तपा अपने-अपने प्राग्रह से उत्पन्न हुए, १५०८ में लुका ने अपने आग्रह से मत चलाया, अब तुम ही कहो तो इन नये गच्छ-प्रवर्तकों में से किस को युगप्रधान कहना और किसको नहीं, इस समय शास्त्रोक्त चतुष्पर्वी का आम्नाय भी दिखता नहीं, जहां युगप्रधान होगा, वहां उक्त सभी बातें एक रूप में ही होगी, इसलिए तुम श्री युगप्रधान का ध्यान करते हुए श्रावक के वेश में "संवरी" बनकर रहो, जिससे तुम्हारे आत्मा का कल्याण होगा।"
शाह कडुवा ने जैन सिद्धान्तों की बातें सुनी थीं, उसको हरिकीति की बात ठीक जंची, वह साधुता की भावना वाला प्रासुक जल पीता, अचित्त पाहार करता, अपने लिए नहीं करा हुमा भोजन विशुद्ध पाहार श्रावक के घर से लेता था। ब्रह्मचर्य का पालन करता, १२ व्रत धारण करता हुआ किसी पर ममता न रखता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा।
कडुमाशाह ने सर्व-प्रथम पाटण में लीम्बा मेहता को प्रतिबोध किया, -सं० १५२४ में शाह मेहता लीम्बा ने शाह कडुआ को विरागी जानकर अपने घर भोजनार्थ बुलाया, भोजन में परोसने के लिए अनेक चीजें हाजिर की। कडुआ ने उनका काल पूछा, जो काल के उपरान्त की चीजें थीं उन्हें नहीं लिया। लीम्बा ने - दही शक्कर माप लेंगे? कडुमा ने पूछा - दही कब का है। लीम्बा ने कहा - हमारे घर पर ३६ भैसियां दूध देती हैं इसलिए यह कैसे जाना जा सकता है - कि यह दही कब का है । कडा ने कहा - हमको १६ पहर के उपरान्त का दही नहीं कल्पता, मेहता लींबा ने कहा - भाप सब में जीव कहते हैं, दूध में से भी पोरा निकालते हैं तो एक वाघ हमको दृष्टान्त दिखाओ तो मैं स्वयं जैनधर्म स्वीकार कर लं, इस पर कडवाशाह ने दांत रंगने का पोथा मंगवाकर दही के उपरि भाग में लकीर खींचकर दही का वर्तन धूप में रखवाया और दही में से ताप लगने के कारण पोथा की लकीर पर ऊपर पाए हुए दही से सफेद जीवों को दिखाया, इससे मेहता लीम्बा जैनधर्म का श्रद्धालु बन गया।
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