SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ ] [ पट्टावली-पराग - है और इसी सुगमता के लिए क्वचित् संध्यभाव भी रखा गया है, ग्रन्थ की शुद्धि करने वाले सज्जनों को मेरी इन बातों को समझ लेना चाहिए।" लेखक ने जो कुछ ऊपर लिखा है, उससे उनकी यह कृति विरुद्ध जाती है । बहुवचन का अनुसरण करने तथा क्वचित् संधि न करने में तो बालावबोध का ध्यान रखा पर पंक्तियां की पंक्तियां गद्य-काव्य की तरह लिखी उस समय बालावबोध का ध्यान छोड़ दिया, इसका कारण क्या है ? जहां तक हमारा अनुमान है श्री जिनपालोपाध्याय ने अपने गुरुषों का वृत्तान्त संक्षेप में अवश्य लिखा होगा। परन्तु उनके देहान्त के बाद किसी डेढ़ पण्डित ने उसमें परिवर्तन करके बड़ा लम्बा चौड़ा प्रस्तुत वृत्तान्त गढ़ दिया है । इसमें प्राने वाले प्रद्य म्नाचार्य तथा ऊकेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करने की जो बातें लिखी हैं, वे एक कल्पित नाटक है, जिसके पढ़ने से पाठक का सिर लज्जा से नीचा हो जाता है । जिनपालोपाध्याय जैसे विद्वान् इस प्रकार का लज्जास्पद नाटक लिखें यह असंभव है। चर्चा-शास्त्रार्थ होना असम्भव नहीं और उसका वृत्तान्त लिखना भी अनुचित नहीं, परन्तु लिखने में भी मर्यादा होती है, अपने मान्य पुरुष को आकाश में चढ़ाकर विरोधी व्यक्ति को पाताल में पहुंचा देना, सभ्य लेखक का कर्तव्य नहीं होता। उपाध्याय जिनपाल की लेखपद्धति का मैंने अध्ययन किया है । "चर्चरी" "उपदेश रसायन रास" तथा "कालस्वरूप कुलक" की टीकात्रों में जिनपाल ने बड़ी खूबी के साथ जिनदत्तसूरि की बातों का प्रतिपादन किया है । उनके विरोधियों के सम्बन्ध में लिखते हुए उन्होंने एक भी कटु-वाक्य का तो क्या कटु शब्द का भी प्रयोग नहीं किया, ऐसे वाक्संयमी जिनपालोपाध्याय के नाम पर गुर्वावली का यह भाग चढ़ाकर उनके किसी अयोग्य भक्त ने उनकी कुसेवा की है। व० सा० शब्द का "वश्याय" अथवा "वस्याय" संस्कृत रूप बनाने वाला लेखक विक्रम की पन्द्रहवीं शती के बाद का है, क्योंकि उनके टाइम में "व" तथा "सा" अक्षरों के प्रागे के अपूर्णता सूचक शून्य हट चुके थे Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy