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तृतीय-परिच्छेद ]
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। प्रारम्भिक गुर्वावली का लेखक नये पाटन में गया है और पाटन के अपने श्रावकों की भक्ति को देखकर अणहिल पाटण को "अनधिल पाटन" अर्थात् "निष्पाप पाटन" नाम देने को प्रेरित हुआ है। यदि वह विहारप्रतिबन्ध के समय दर्मियान पाटण में गया होता तो उसे पाटन को "अघिल पाटन" कहने का ही मन होता ।
प्रारम्भिक बृहद्-गुर्वावली दूसरे भी अनेक कारणों से साधारण व्यक्ति की कृति सिद्ध होती है। इसमें प्रयुक्त अनेक प्रशुद्ध शब्दप्रयोग स्वयं इसको सामान्य कृति सिद्ध कर रहे हैं। अंभोहर, स्थावलक, दुर्लभराज्ञः, शुङ्क, छुपन्तु, गण्डलक, छोटित, निरोप, प्राढती, उम्बरिका, पश्चाटुकुरा, बिरदावली, प्रादि प्रलाक्षणिक शब्दों का प्रयोग करने वाला लेखक अच्छा विद्वान् नहीं माना जा सकता। गुर्वावली के प्राकृत भाग में “पारुस्थ", "पारुत्थ", "द्रम्भ" ये तीन सिक्कों के नाम पाए हैं, जिनमें प्रथम के दो नाम रजवाड़ी सिक्कों के हैं और उत्तर तथा मध्यभारतीय रजवाड़ों के ये सिक्के थे। इनकी प्राचीनता प्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं मिलता, इससे अनुमान किया जा सकता है कि उक्त "सिक्के' विक्रम की १६वीं शती के बाद के होने चाहिए ।
गुर्वावली की प्रादर्श प्रति के प्रस्तुत पुस्तक में जो दो पानों के ब्लोक दिए हैं, उनको देखने से ज्ञात होता है कि इसकी लिपि विक्रम की सोलहवीं शती के पहले की नहीं हो सकती। क्या प्राश्चर्य है कि गुर्वावली के निर्मापक के हाथ का ही यह आदर्श हो, क्योंकि इस लिपि में पड़ी मात्रामों के अतिरिक्त लिपि की प्राचीनता का कोई प्रमाण नहीं है।
अब रही मणिधारी जिनचन्द्र, जिनपति और जिनेश्वरसूरि के वृत्तान्त. लेखक की बात, सो गुर्वावली के पञ्चानवें पृष्ठ में किसी ने लिखा है कि "इस प्रकार जिनचन्द्र, जिनपति और जिनेश्वरसूरि के जीवनवृत्तान्त दिल्ली वास्तव्य साहुलिसुत साह हेमा की प्रार्थना से श्री जिनपालोपाध्यायजी ने ग्रथित किये" इसके आगे कहा गया है कि "लोकभाषा का अनुसरण करने वाली बातें सुबोध होती हैं । इसलिए कहीं-कहीं एक-वचन के स्थान बहुवचन भी लिखा
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