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तृतीय- परिच्छेद ]
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और केवल "वसा" लिखने का प्रचार हो चुका था । इसी कारण से लेखक ने दोनों प्रक्षरों का "खरा तात्पर्य" न समझ कर "वश्याय" अथवा " वस्याय" रूप बना लिए जो बिल्कुल अशुद्ध हैं, इससे लेखक सोलहवीं शती तक की अर्वाचीन कोटि में पहुँच जाता है, यह निस्सन्देह बात है ।
उस आधारभूत
के
श्राचार्य जिनेश्वरसूरि का अन्तिम, जिनप्रबोधसरि तथा जिनचन्द्रसूरि का सम्पूर्ण जीवन लिखने वाला लेखक नया प्रतीत होता है । इसके लेख में संस्कृत भाषा सम्बधी अशुद्धियां तो विशेष दृष्टिगोचर नहीं होती, परन्तु लिपिगत और विशेष नामों के अज्ञान की अशुद्धियां जरूर देखी जाती हैं । इस भाग के लेखक को सोलहवीं शती की लिपि को पढने का ठीक बोध नहीं था, इसी से "अंगुलंक त्रिशत्प्रमाण" इस शुद्ध संख्या को बिगाड़ कर "अंगुलि कत्रिशत्प्रमारण" ऐसा " अशुद्ध रूप" बना दिया है। लेखक ने जिस मूल पुस्तक के अाधार से गुर्वावली का यह भाग लिखा है, पुस्तक की लिपि पड़ी मात्रा वाली थी। एक मात्रा "ल" पीछे और एक उसके उपर लगी हुई थी, परन्तु लेखक ने उसे ह्रस्व "लि" समझ कर "अंगुलिक" बना लिया, छोटी बड़ी सभी मूर्तियां विषमांगुल परिमित होतो हैं, परन्तु लेखक को न शिल्प का ज्ञान था न प्राचीन लिपि पढ़ने का बोध । परिणामस्वरूप यह भूल हो गई । इसी प्रकार विशेष नामों का परिचय न होने के कारण "काकन्दी को" "नालन्दा" को "नारिन्दा" श्रादि नाम दिए। इनके लेख में नामक सिक्के का चार वार उल्लेख आया है, मथुरा के स्तूप की यात्रा के प्रसंग पर हुए हैं, कोई उत्तर भारतीय देशी राज्य का सिक्का होना चादिए ।
"क्राक्रन्दी" द्रम्म के अतिरिक्त "जैथल " ये उल्लेख हस्तिनापुर तथा इससे जाना जाता है कि यह
प्राचीन सिक्कों की नामावली में "जैथल" का नाम न होने से यह भी कोई प्रचीन सिक्का ही मालूम होता है ।
जिनचन्द्रसरि का वृत्तान्त पूरा होने के बाद गुर्वावली का लेखक बदल जाने की झांकी होती है । लेखक की लेखन पद्धति बदलने के साथ ही उसकी प्रकृति भी बदली हुई प्रतीत होती है, इस भाग का लेखक गृहस्थों
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