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तोय - परिच्छेद ]
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है, इससे इतना तो पहले से ही निश्चित हो जाता है कि पट्टावली प्रमादपूर्ण है। श्री हरिभद्रसूरि के बाद श्री शान्तिसू, श्री देविन्दवाचक, गोविन्दवाचक, उमास्वातिवाचक, श्री जिनभद्र गरि क्षमाश्रमण, इस क्रम से श्रुतधरों के नाम लिखने के बाद लेखक कहते हैं - श्री देवद्धि गरिण क्षमाश्रमण ने वलभी नगरी में सर्वसाधु संघ का सम्मेलन किया और सर्व- सिद्धान्त पुस्तकों में लिखवाएं, भगवान् महावीर से ६८० वें वर्ष में पुस्तक लिखे गए, श्री देवद्धि गरिए के पट्टपर श्री शीलाङ्काचार्य हुए, जिन्होंने एकादशांगी पर वृत्ति बनाई, शीलाङ्काचार्य के पट्ट पर श्री देवसूरि, इनके पट्ट पर श्री नेमिचन्द्रसूरि नेमिचन्द्र के पट्टपर श्री उद्योतनसूरि, उद्योतनसूरि के पट्टपर श्री वर्धमानसूरि, । वर्धमानसूरि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि अंभोहर देश में ८४ स्थविरों की मण्डली में श्री जिनचन्द्राचार्य सब से बड़े थे और जिनचन्द्राचार्य के शिष्य वर्धमान को सिद्धान्त का श्रवगाहन करते ८४ प्राशातनाओं का अधिकार आया, तब आपने गुरु से पूछा कि चैत्य में रहने से प्राशातनाए लगती हैं, इस पर से जिनचन्द्रचार्य ने दिल्ली की तरफ विचरते हुए सुविहित श्री उद्योतनसूरिजी को पत्र लिखा कि मेरा शिष्य वर्धमानसूरि प्रापकी तरफ भारहा है सो प्राप इसे उपसंपदा देकर जिस प्रकार इसका विस्तार हो वैसा करें, मैंने अपना यह शिष्य आपको सोंप दिया है। वर्धमान उद्योतन रिजो के पास गया और उन्होंने योग्य जानकर अपना पट्टधर बना लिया ।
वर्धमानसूरि के पट्ट पर जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि हुए, । एक समय जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि पाटण गए और राजा के पुरोहित के यहां ठहरे, चैत्यवासियों के साथ दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वरसूरि का वाद हुआ और साधुनों का " वसति में रहना प्रमाणित हुआ, " इससे सं० १०८० में जिनेश्वरसूरि को "खरतर " बिरुद दिया, तब से उनका गच्छ "सुविहित" इस नाम से प्रसिद्ध हुआ और "चौरासी गच्छ" "कोमल" इस नाम से प्रसिद्ध हुए ।
इतिहास के जानने वालों को यह समझने में तनिक भी देर न लगेगी कि भार्य रक्षित से पट्टावली की शुरुआत करवा कर उनके बाद हरिभद्र, श्री शान्तिसूरि, श्री देविन्दवाचक, गोविन्दवाचक, उमास्वातिवाचक श्री
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