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चतुर्थ- परिच्छेद ]
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प्राये उसी समय शाह देपा जो धर्मानुरागो और दीक्षा का प्रभिलाषी वहां श्राया था, शाहश्री को मन्दिर में पगडी उतारकर प्रतिमा के दर्शन करते हुए देखा, उसके सम्बन्ध में पूछने की इच्छा हुई, शाह चैत्यवन्दन कर मन्दिर से बाहर निकले, तब शाह देपा ने अपनी बनाई हुई १२ व्रत की चतुष्पदी कडुबाशाह के सामने रक्खी शाह उसे पढ़कर बहुत खुश हुए, बाद में देपाशाह ने मन्दिरजी में पगड़ी उतारने का कारण पूछा, तब श्री शाह ने शास्त्र के मावार से कहा - भगवान् के सामने शिरोवेष्टन शिर पर रखकर जाना एक प्रकार की आशातना है, इस विषय को विस्तृत चर्चा और शास्त्र के पाठ शाहश्री तेजपाल कृत "दशपदी" में देख लेना चाहिए, शाहू देपा ने शाहश्री के पास संवपन स्वीकार किया और उनके साथ विचरने लगा, परी० पूनाशाह के पास बहुत पढ़े और होशियार हुए थे ।
सं० १५४९ में शाह कडुवा नाडलाई में बहोरा टोला के घर चातुमसिक ठहरे, बहोरा टोला भी वैराग्यवान् और सद्गृहस्थ था । शाहश्री के पास छट्ट-छट्ट पारणा करने की प्रतिज्ञा की थी। शाहश्री के पास वहां तीन संवरी हुए, शाह थोरपाल, शाह धीरु, शाह लोम्पा एवं १४ संवरी शाहश्री के पास रहते थे ।
सं० १५५० में सादड़ी गए और दोसी संघराज के घर चातुर्मासक ठहरे, वहां पर खरतरों के साथ महावीर के कल्याणकों के सम्बन्ध में चर्चा हुई और कल्पसूत्र, यात्रापंचाशक, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों के प्रमाण से महावीर के पांच कल्याणक सिद्ध किये और गर्भापहार कल्याणक जिनवल्लभ ने स्थापित किया है, तथा स्त्री को पूजा करने का निषेध खरतरों ने किया है जिसका ज्ञातासूत्र के आधार से शाहश्री ने खण्डन किया । सादड़ी में दो संवरी हुए - शाह सिद्धर, शाह कृपा ।
सं० १५५१ में शाहश्री ने सिरोही में चातुर्मासक किया, वहां एक श्रावक संवरी हुमा, जिसका नाम शाह शवगरण था, वहां पर तपागच्छ वालों के साथ सामायिक ग्रहण करने में ईरिया पथिकी प्रतिक्रमरण पहले या पोछे इस विषय की चर्चा हुई।
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