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________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १६५ है कि वह हीरविजयसरिजी को नहीं वांदेगी, पापको हमने शाह करके रक्खा, इस कारण से होरविजयसरिजी संघविन को राजविजयसूरि की श्राविका कहकर बतलाते हैं, प्रारके साधु, क्षेत्र की सब सामग्री समान है। आप अपना स्वतंत्र मच्छ कायम करिये। यह कहकर बोहाल सघवी ने राजविजयसूरि के गच्छ की स्थापना की, बड़े उत्सव महोत्सव किये, इस प्रकार दो गच्छनायक प्राचार्य श्री अहमदाबाद में भिन्न-भिन्न उपाश्रयों में चातुमस्यि रहे, श्री विजयदानभूरि के स्वर्गवास के बाद ६० वें पाट पर श्री राजविजयसरि हुए, जिन्होंने मालव देश को प्रतिबोध दिया है। राजविजयसूरि ने अपने उतराधिकारी पद पर श्री मुनिराजसरि को स्थापित करके राधनपुर चातुर्मास्य के लिये भेजा, मुनिराजसूरि का इसी वर्ष में राधनपुर में स्वर्गवास हो गया, इस घटना से राजविजयसूरि को बड़ा दुःख हुप्रा, मुनिराजसूरि पर उनका बहुत मोह था, उनके जाने से उनके दिल में ऐसा वैराग्य प्रांगया कि अपना निर्वाण समय निकट जानकर भी किसी को अपने पद पर स्थापित करते नहीं थे, संघवी के प्राग्रह पूर्वक कहने पर माचार्य ने उत्तर दिया---मुनिराजसरि जैसा प्राचार्य चला गया, तो अब नया प्राचार्य स्थापित करके क्या करना है । संघवी की इच्छा थी कि शचार्यश्री किसी न किसी साधु के सिर पर हाथ रख दें तो अच्छा है, परन्तु प्राचार्य की ऐसा करने की इच्छा नहीं थी, तब संघवी ने अपने भानजे रत्नसो को जो जातिका श्रीश्रीमाल था और उन्हीं के घर पर रहता था, पूछा-यदि तू साधु हो जाय तो तुझे गच्छनायक का पद दिला दू। भानजे ने स्वीकार किया, संघवी उसे लेकर राजविजयसूरिजी के पास गया, श्रीजीने रत्नसी श्रावक के सिर पर हाथ रक्खा मौर राजविजयसूरिजी ने आयुष्य पूर्ण किया। राजविजयसूरि का राजनगर में सं० १५५४ में जन्म सं० १५७१ में व्रत, सं० १५८४ में सूरिपद और सं० १६२४ में स्वर्गवास । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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