SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१. श्री रत्नविजयसूरिनी और इनकी परम्परा __बोकल संघवी ने रत्नविजयजी के सिर पर राजविजयसरि का हाथ रखवाने के बाद तुरन्त गीतार्थ के पास से पांच महाव्रत उचरःए। उसी समय पाठक, पद और उसी समय प्राचार्य-पद, योगोद्वहन कराने के बाद पट्टाभिषेक तथा गच्छानुज्ञा उत्सव किया, परन्तु सूरिमन्त्र देने वाला कोई नहीं था, तब कमल-कलश तथा श्री देवरत्नसूरिजी जो संसार पक्ष में रत्नविजयसूरि के सगे लगते थे, श्री रत्नविजयसूरि ने संघवी को उनके पास भेजा, संघवी कतिपय गीतार्थो के साथ श्री देवरत्नसूरि के पास गया, सूरिमन्त्र प्रादि की सब हकीकत कही, तब कमलकलशा गच्छनायक ने कहा-तुम हमारी अटक रखो तो मैं सूरिमन्त्र देऊ, तब उनकी शर्त मान्य की और कहा-आयन्दा पट्टधर प्राचार्य होगा, उसके नाम के साथ "रत्नशाखा" रखेंगे। यह बात नक्की करने के बाद देवरत्नसूरि ने विधिविधान के साथ सूरिमन्त्र का मार्ग दिखाया । और विजयदानसूरि के पाट पर दो पट्टधर हुए। हीरविजयसूरिजी ने राजविजयसूरि का स्वर्गवास होने के बाद गच्छ में एकता करने का विचार किया मोर अपये गीतार्थों को श्री रत्नविजयसूरि के पास भेजा पोर कहा-अपन दोनों की सामाचारी एक है, गुरु एक है और गच्छ के प्राचार्य दो; यह बात अपन दोनों के लिये प्रयुक्त है, मेरी इच्छा है कि मैं अपने पट्ट पर दूसरा कोई प्राचार्य प्रतिष्ठित न करके आपके लिये स्थान खाली रखूगा। इस समय अपन दोनों एक हो जाये और मेरे बाद माप गच्छपति बने तो हम दोनों के लिये शोभा की बात होगी, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy