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________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १६७ श्री रत्नविजयसूरि श्री श्रीमाल ज्ञाति के भोले भाले पुरुष थे। हीरविजयसूरिजी की बातों को मान लिया और सब बातें लेखबद्ध कर साख मते भी करवा दिये, बाद में यह बात उनके गीतार्थ साधुओं ने तथा संघवी ने जानी, उनको बहुत उपालम्भ दिया, परन्तु कोल वचन लिखवा दिये थे, उनमें कृछ भी रद्दोबदल होने की गुजाइश नहीं थी, कोल के अनुसार श्री राजविजयसूरिजी के क्षेत्र में श्री होरविजयसूरिजी ने अपने साधुनों को रक्खा और अपने क्षेत्रों में श्री रत्नविजयसूरि के यतियों को भेजा, इस प्रकार से यतियों ने सब क्षेत्र अपने हाथ में कर लिये। श्री रत्नविजयजी पालनपुर चातुर्मास्य करने जा रहे थे, शरीर में स्थूल होने से मार्ग चलना उनके लिये कठिन हो गया। इस बात को जान कर "उनावा' के श्रावकों ने प्राग्रह कर अपने गांव में ही चातुर्मास्य करवाया और इस प्रकार १५ वर्ष वहीं बीत गये। दरमियान सब क्षेत्र-यति-श्रावक अपने हाथ से चले गये, तब श्री हीरविजयसूरिजी ने रत्नसूरि को पत्र लिखा और कहा - हमने प्रापको प्राचार्य-पद देने का कहा था वह सही है पर एक क्षेत्र लेकर इतने वर्षों तक बैठे रहना गच्छनायक प्राचार्य के लिए अनुचित है। यदि क्षेत्रों में फिरने की शक्ति नहीं है, तो उपाध्याय-पद रखना कबूल करो, ताकि प्राचार्य के सम्बन्ध में दूसरा विचार किया जाय । पत्र पढ़ कर रत्नसूरिजी ने सोचा कि मैंने किसी से नहीं पूछा और न किसी का कहना माना, उसका यह परिणाम है, परन्तु अब क्या हो सकता है। अहमदाबाद से निकल कर पहला चातुर्मास्य वलाद में और दूसरा चातुर्मास्य वीसनगर में करके तीसरा चातुर्मास्य ऊनाऊ गांव में किया और वहां वर्षों तक रहा । अब क्षेत्र और यति कोई हाथ में नहीं रहे, यह सोच कर दूर विचरने वाले अपने साधुओं को पाने के लिये कहलाया, परन्तु कोई नहीं आया । तब अहमदाबाद संघवी को पत्र लिखा, परन्तु उनके पास साधु होरसूरिजी के हैं, वे पत्र संघपति के पास पहुँचने देते नहीं। एक बार पालनपुर से पत्र लेकर एक काशीद राजनगर जाने वाला है, यह उनको मालूम हुआ, तब वे स्वयं स्थण्डिल के बहाने बाहर गए और अहमदाबाद के रास्ते पर खड़े रहे । उनको हरकारा मिला, उसको पूछने पर उसने कहा - मैं महमदाबाद जा रहा हूं, यह सुन कर रत्नविजयसूरि ने दस रुपया देना निश्चय किया मौर Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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