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प्रथम-परिच्छेद ]
सुधर्मा को सौंप जाते थे, और बाद में वे सब सुधर्मा के शिष्य माने जाते थे। गरणधरों के सम्बन्ध में ही नहीं, यह परिपाटी लगभग भद्रबाहु स्वामी के समय तक चलती रही। किसी के भी उपदेश से प्रतिबोध पाकर दीक्षा लो, पर उसे शिष्य तो मुख्य पट्टधर प्राचार्य का हो होना पड़ता था।
प्राचार्य भद्रबाहु के शिष्य स्थविर 'गोदास' से सर्वप्रथम उनके नाम से 'गोदास गण' निकला। इसका कारण यह था कि तब तक जैन श्रमणों को सख्या पर्याप्त बढ़ चुकी थी पौर सब श्रमणों को वे सम्हाल नहीं सकते थे। इसलिए अपने समुदाय के प्रमुक साधुनों की वे स्वयं व्यवस्था करते थे, तब उनसे अतिरिक्त जो सैकड़ों साधु थे उनकी देखभाल तथा पठन-पाठन की व्यवस्था भद्रबाहु के अन्य तीन स्थविर करते थे जिनके नाम अग्निदत्त, यज्ञदत्त मौर सोमदत्त थे । ये सभी स्थविर काश्यप गोत्रीय थे। जो समुदाय 'स्थविर गोदास' की देखभाल में था उसका नाम "गोदास गण" हो गया, उसकी चार शाखाएँ थी, ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्डवर्धनीया और दासीकर्पटिका ।
शाखाओं के नाम बहुधा श्रमणों के अधिक विहार प्रथवा अधिक निवास के कारण नगर अथवा गांवों के नामों से प्रचलित हो जाते थे, जैसे ताम्रलिप्ति नगरी से ताम्रलिप्तिका, पुण्ड्यर्धन नगर से पौण्डवर्धनिका, कोटिवर्ष नगर से कोटिवर्षीया, दासीकर्पट नामक स्थान से दासीकर्पटिका। भार्य गोदास के समय में श्रमणों की संख्यावृद्धि के कारण गण पृथक् निकला, शाखाएँ प्रसिद्ध हुईं । परन्तु कुल उत्पन्न नहीं हुमा, क्योंकि तब तक मुख्य प्राचार्य के अतिरिक्त किसी भी स्थविर ने अपने नाम से शिष्य बनाने का प्रारंभ नहीं किया था, परन्तु मौर्यकाल में श्रमणों की अत्यधिक वृद्धि और दूर दूर प्रदेशों में विहार प्रचलित हो चुका था, परिणाम यह हुआ कि पट्टधर के अतिरिक्त अन्य योग्य स्थविर भी अपने नाम से पुरुषों को दीक्षा देकर उनके समुदाय को अपने "कुल" के नाम से प्रसिद्ध करने लगे और उसकी व्याख्या निश्चित हुई, कि "कुलं एकाचार्यसन्ततिः" जब तक साधुसंख्या अत्यधिक बढ़ी नहीं थी, तब तक प्राचार्य की आज्ञा में रहने वाले साधुसमुदाय गण के नाम से ही पहिचाने जाते थे। परन्तु प्राचार्य के गुरु
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