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________________ १२ ] [ पट्टावली-पराग भाई अथवा तो उनके शिष्यों ने अपने अपने नाम से शिष्य बनाकर अपने नाम से 'कुल" प्रसिद्ध किये तब आचार्यों को 'कुल' तथा 'गणों के सम्बन्ध में नये नियम निर्माण करने पड़े । "एत्थ कुलं विण्णेयं, एयायरियरस संतती जाउ । तिण्ह कुलारामिहो पुरण, साविक्खाणं गणो होइ ॥" अर्थात् : एक प्राचार्य का शिष्यपरिवार 'कुल' कहलाता है, ऐसे परस्पर सापेक्ष याने-एक दूसरे से सभी प्रकार के साम्भोगिक व्यवहार रखने वाले तीन कुलों का समुदाय "गण" कहलाता है। ऊपर की गाथा में "कुल" तथा "गण" की सूचना की है। शास्त्रों में कुल की परिभाषा यह बांधी गयी है कि “आठ साधुओं के ऊपर नवमां उनका गुरु स्थविर हो, तभी उसका नाम "कुल' कहलाता था, आठ में एक भी संख्या कम होने पर वह कुल कहलाने का अधिकारी नहीं होता था। यह कुल की कम से कम संख्या मानी गयी। उससे अधिक कितनी भी हो सकती थी, परन्तु इस प्रकार के कम से कम तीन 'कुल' सम्मिलित होते, तभी अपने संघटन को 'गण' कह सकते थे। जिस प्रकार एक कुल में ६ श्रमणों का होना आवश्यक माना गया था, उसी प्रकार एक गण में "अट्ठाईस २८ साधु सम्मिलित होते," तीन कुलों के २७ और २८ वां "गणस्थविर" तभी वह संघटन : गण" नाम से अपना व्यवहार कर सकता था, और गण को जो जो अधिकार प्राप्त थे वे उसको मिलते थे । इस प्रकार "कुल" तथा "गण" की व्याख्या शास्त्रकारों ने बाँधी है, जब तक 'युगप्रधान शासनपद्धति" चलती रही तब तक इसी प्रकार की 'कुल' तथा 'गण" को परिभाषा थो, संघ स्थविर-शासन पद्धति विच्छेद होने के बाद कुल, गण की परिभाषाएँ भी धीरे धीरे भुलायी जाने लगों और परिणामस्वरूप 'गण' शब्द का स्थान 'गच्छ' ने ग्रहण किया। वास्तव में गच्छ शब्द प्राचीन काल में 'राशि' के अर्थ में प्रयुक्त होता था। दो साधुओं की सम्मिलित संख्या 'संघाटक' कहलाती थी, तब तीन, चार, पांच आदि से लेकर हजारों तक की सम्मिलित संख्या 'गच्छ' नाम से व्यवहृत होती थी। 'गच्छ' शब्द का ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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