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________________ प्रथम-परिच्छेद ] व्यावहारिक अर्थ हम 'टुकड़ो' कर सकते हैं, "बृहत्कल्पभाष्य" में तोन से लेकर ३२ हजार तक को श्रमणसंख्या को 'गच्छ' के नाम से निर्दिष्ट किया है। धीरे धीरे 'गरण' शब्द व्यवहार में से हटता गया और उसका स्थान 'गच्छ' शब्द ने ग्रहण किया, परन्तु वास्तव में 'गण' का प्रतिनिधि गच्छ' नहीं है । गण में जो आचार्य, उपाध्याय, गणी, स्थविर, प्रवर्तक और गणावच्छेदक प्रमुख अधिकारी माने गये हैं, वे गच्छ में नहीं माने, क्योंकि गच्छ शब्द का अर्थ ही साधुओं को टुकड़ी माना गया है और सूत्रकाल में तो गच्छ के स्थान पर “गुच्छ” शब्द ही प्रयुक्त होता था। परन्तु भाष्यकारों ने "गुच्छ” को 'गच्छ' बना दिया, स्थविर-शासन-पद्धति उठ जाने के बाद "कुल" 'गण' शब्द बेकार बने और "गच्छ" शब्द ने 'गण' शब्द के स्थान में अपनी सत्ता जमा ली। यही कारण है कि पिछले सूत्र-टीकाकारों को "गच्छानां समूहः कुलं" यह व्याख्या करनी पड़ी। स्थविर-शासन-पद्धति बंद पड़ने के बाद 'कुल' तथा 'गणों' के 'प्राभवद् व्यवहार' 'प्रायश्चित्त व्यवहार' आदि सभी प्रकार के व्यवहार अनियमित हो गये थे, सभी समुदायों के पास अपने अपने कुल, गण; के नाम रह गए थे, उनका उपयोग प्रव्रज्या के समय अथवा तो महापरिठावणिया के समय में ' दिशावरण' में होता था और होता है। आर हम लिल पाये हैं कि 'सापेक्ष तीन कुलों का एक गण बनता था।' इसका तात्पर्य यह है, कुल में साधु संख्या कितनी भी अधिक कयों न हो, तीन कुलों से कम दो अथवा एक कुल 'गण' का नाम नहीं पा सकता था। तीन अथवा उससे कितने भी अधिक कुल एक गरण में हो सकते थे, परन्तु तीन से कम कुल गण में नहीं होते थे । 'एत्थ कुलं विण्णेय' यह उपयुक्त गाथा कल्पसूत्र की अनेक टीकाओं में उद्धृत की हुई दृष्टिगोचर होती है । 'कल्पसुबोधिका' में भी जब वह पहले छपी थी उपर्युक्त गाथा शुद्ध रूप में छपी थी, परन्तु बाद को प्रावृत्तियों में संपादकों की अनभिज्ञता से अथवा एक दूसरे के अनुकरण से यह गाथा अशुद्ध हो गयी है । 'तिण्ह कुलाण मिहो पुण' इस चरण में "तिण्ह" के स्थान में “दुह" हो गया है जो अशुद्ध है, सर्वप्रथम "कल्पकिरणावली" में "दुग्रह कुलाण नहोपुण" यह प्रशुद्ध पाठ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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