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________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६५ एक समय प० पूना पाटन में व्याख्यान दे रहे थे तब एक श्रावक बहुत दिनों से व्याख्यान में पाया। उसको पूना ने उपालम्भ दिया और व्याख्यान आगे चलाया । जिस श्रावक को पूना ने उपालम्भ दिया था उसने सोचा कि पूना को पोथो का भण्डार न सम्भलाया इसलिए वह हृदय में जलता है। पोथियां लीम्बा कसुम्बीया के यहां से अपने घर मंगाई। बात बढ़ गई, श्रीवन्त को कहा- चलो दूसरे समवाय के पास जाकर इसका न्याय कराएं । शाह श्रीवत ने कहा - शाह श्री कडुआ के तथा शाह श्री खीमा के सिद्धान्तोक्त वचन सुनकर होनाचारो को नमें वे हीन । इतना पढ़े लिखे आदमी को हीनाचारी को दृष्टि से भी देखना न चाहिए, इत्यादि बहुत चर्चा हुई। शाह श्रीवन्त ने हीनाचारियों का खण्डन किया तब परोख पूना ने हीनाचारी का समर्थन किया, इस प्रसंग में शाह श्रीवन्त ने "गुरु तत्त्वनिर्णय हुण्डो' रूप ग्रन्थ बनाया जो इस समय हेबतपुर में उपाश्रय के भण्डार में ४४ पत्र का ग्रन्थ रहा हुप्रा है, उस ग्रन्थ के अनुसार साधु का मार्ग देखना, परन्तु हीनाचारी को नमन नहीं करना । बाद में परी० पूना ने शाह श्रीवन्त को कहा - मैंने तुमको पढ़ाया, तैयार किया और मेरा ही वचन न माने यह ठीक नहीं हैं, मेरो बात का परसमवाय में आकर समर्थन करना चाहिए। श्रीवन्त ने कहा - पाप कहो वैसा करने को तैयार हूँ, परन्तु ऐसा करने से अपना ही धर्म ठहरेगा नहीं, वास्तव में वीतराग के मार्ग में रहकर १०० वर्ष तक सूली पर रहना अच्छा, परन्तु धर्मबुद्धि से अगीतार्थ का संग करना अच्छा नहीं, इस पर परीख पूना ने कहा - अपन दोनों खम्भात शाह रामा कर्णवेधी को पत्र लिखे और वे जो निर्णय दें, उसे मान्य करे, शाह श्रीवन्त ने शाह पूना का उक्त प्रस्ताव स्वीकार किया और रामा को खम्भात पत्र लिखा। शाह रामा ने शास्त्राधार से उत्तर दिया, परन्तु परी० पूना ने उस बात पर श्रद्धा नहीं की, इस सम्बन्ध में आए हुए शाह रामा के १० पत्र इस समय "हैबतपुर भण्डार में पड़े हुए है ।" शाह रामा बड़े विद्वान् थे, परन्तु परी० पूना ने उनकी बात पर विश्वास नहीं किया और उल्टे गुस्से में आकर शाह श्रीवात के पास अपनी जो-जो वस्तु थी वह भी अपने कब्जे में ले ली, बहुत मनुष्यों को पक्ष में करके ७०० घर लेकर पौषधशाला में चला गया, परन्तु भण्डार नहीं ले ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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