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________________ ४४८ ] [ पट्टावली-पराग में देवद्विगरिण की वाचक - वंशावली के नहीं हैं और न देवद्धि की गुरु परम्परा के ये नाम हैं, तथा २८ से लेकर ६० तक ये नाम कल्पित हैं । इन नामों के आचार्यों या साधुओं के होने का उल्लेख माथुरी या वालभी स्थविराबली में अथवा तो अन्य किसी पट्टावली स्थविरावली में नहीं है । ६१वां ज्ञानाचार्य वास्तव में वृद्धपोषधशालिक याचार्य ज्ञानचन्द्रसूरि हैं। इसके आगे के ६२ से लेकर ८० तक के १८ नामों में प्रारम्भ के कतिपय नाम faraच्छ के ऋषियों के हैं, तब अन्तिम कतिपय नाम पुष्पभिक्षु के बड़ेरों के और उनके शिष्य - प्रशिष्यों के हैं । पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली जो "ऐतिहासिक नोंघ" पृ० १६३ में दी है उसमें देवगिरिण के बाद के १८ नाम छोड़कर ४६ से लगाकर निम्न प्रकार से नाम लिखे हैं ४६ हरिसेन ४६ जयसेन ५२ सूरसेन ५५ गजसेन ५८ शिवराज ४७ कुशलदत्त ५० विजयब Jain Education International 2010_05 ५३ महासेन ५६ मिश्रसेन ५६ लालजीमल्ल पंजाबी साधु फूलचन्दजी ने अपनी नवीन पट्टावली में देवगिरिणक्षमाश्रमण के बाद जो २८ से ४५ तक के नम्बर वाले नाम लिखे हैं वे तो कल्पित हैं ही, परन्तु उसके बाद के भी ४६ से ६० नम्बर तक के १५ नामों में से ७ नाम फूलचन्दजी की पट्टावली के नामों से नहीं मिलते । ४६वा पट्टधर का नाम पंजाबी पट्टावली में हरिसेन है, तब फूलचन्दजी ने उसके स्थान पर हरिशर्मा लिखा है । पं० पट्टावली में ४७वां नाम कुशलदत्त है, तब फूलचन्दजी ने उसे कुशलप्रभ लिखा है । पं० पट्टावली में ४८वाँ नाम जीक्नषि है, तब फूलचन्दजी ने उसके स्थान पर "उमरगायरियो” लिखा है । ५१वां नाम पं० पट्टावली में "देवर्षि" है तब फूलचन्दजी ने "देवचन्द्र" लिखा है | पं० पट्टावली में ५३वां नाम " महासेन" मिलता है तव फूलचन्दजी ने "महासिंह" लिखा है। पं० पट्टावली में ५४वां नाम ४८ जीवनषि ५१ देवर्षि ५४ जयराज ५७ विजयसिंह ६० ज्ञानजी यति For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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