SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिच्छेद ] [ ४४६ जयराज है तब फूलचन्दजी ने उस नम्बर के साथ "महासेन' लिखा है और "जयराज" को नम्बर ५५वां में लिया है, और पं० पट्टावली में ५५वें नंबर के साथ गजसेन का नाम लिखा है। पं० पट्टावली में ५६वों पट्टधर "मिश्रसेन" बताया है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को "मित्रसेन" लिखा है पोर नम्बर ५७वां दिया है। पं० पट्टावली में ५७वां नाम "विजयसिंह" का है, तब फूलचन्दजी ने विजयसिंह को ५८वें नम्बर में रखा है । पं० पट्टावली में ५८-५९-६० नम्बर क्रमशः शिवराज, लालजीमल्ल, और ज्ञानजी यति को दिए है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को ५६-६०-६१ नम्बर में रखा है। उपर्युक्त नामों की तुलना से जाना जा सकता है कि पंजाबी साधु श्री फूलचन्दजी सूत्रों के पाठों के परिवर्तन में भौर नये नाम गढने में सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं। इन्होंने स्थविरों के नामों में ही नहीं मागमों के पाठों में भी अनेक परिवर्तन किये हैं और कई पाठ मूल में से हटा दिये हैं। इस हकीकत की जानकारी पाठकगण नागे दिये गए शीर्षकों को पढ़कर हासिल कर सकते हैं। जैन आगमों में काट-छांट : लौंकामत का प्रादुर्भाव बिक्रम सं० १५०८ में हुआ था और इस मत में से १८वीं शती के प्रारम्भ में अर्थात् १७०६ में मुख पर मुहपत्ति बांधने वाला स्थानकवासी सम्प्रदाय निकला, इत्यादि बातों का विस्तृत वर्णन लौकागच्छ की पट्टावली में दिया जा चुका है। शाह लौंका ने तथा उनके अनुयायी ऋषियों ने मूर्तिपूजा का विरोध अवश्य किया था, परन्तु जैन मागमों में काटछांट करने का साहस किसी ने नहीं किया था। सर्वप्रथम सं० १८६५ में स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजी ने "समकितसार" नामक ग्रन्थ लिखकर मूर्तिपूजा के समर्थन में जो भागमों के पाठ दिये थे उनकी समालोचना करके अर्थ-परिवर्तन द्वारा अपनी मान्यता ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy