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________________ ४२० ] [पट्टावली-पराग का लोप आदि दोषों के कारण शिथिलाचारी बताता है. और १७९६ में शा० लवजी की दीक्षा की बात कहता है । लवजी दीक्षा लेने के बाद अपने गुरु बजरंगजो को लौकागच्छ से निकालने का आग्रह करते हैं, और इनके इन्कार करने पर भी ऋ० लवजी, ऋ० भारगजी और ऋ० सुखजी के साथ लौकागच्छ को छोड़कर निकल जाते हैं, और तीनों फिर दीक्षा लेते हैं और लोग उनको "दुढ़िया" यह नाम देते हैं। पट्टावलीकार ने उक्त त्रिपुटी को दीक्षा तो लिवाली, पर दीक्षा-दाता गुरु कौन थे ? यह नहीं लिखा । अपने हाथ से कल्पित वेश पहिन लेना यह दीक्षा नहीं स्वांग होता है । दीक्षा तो दीक्षाधारी अधिकारी- गुरु से ही प्राप्त होती है, न कि वेश- मात्र धारण करने से । लौकागच्छ के साधु स्वयं गृहस्थ- गुरु के चेले थे तो उनमें से निकलने वाले लवजी आदि नया वेश धारण करने से नये दीक्षित नहीं बन सकते । पट्टावली के अन्त में लेखक ऋषि लवजी के मुंह से कहलाता है - "अरे भाई ! पांचवां प्रारा है, ऐसी कठिनाई हम से नहीं पलेगी, ऐसा करने से हमारा टोला बिखर जाय । पट्टावलीकार ने पूर्व के पत्र में तो लवजी को महात्यागी और लोकागच्छ का त्याग करके फिर दीक्षा लेने वाला बताया श्रौर आगे जाकर उन्हीं लवजी के मुंह से पंचम आरे के नाम से शिथिलाचार को निभाने की बात कहलाता है | यह क्या पट्टावली- लेखक का ढंग है ! एक व्यक्ति को खूब ऊंचा चढ़ाकर दूसरे ही क्षरण में उसे नीचे गिराना यह समझदार लेखक का काम नहीं है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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