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। पट्टावलो-पराग
इस दशा में इनके शिष्य उत्तर और बलिस्सह का समय भी यही अथवा इससे कुछ परवर्ती विक्रमपूर्व द्वितीय शताब्दी में आएगा।
स्थविरावलीसूचित आठ गणों में से “गोदासगण" और "उत्तरबलिस्सहगण" के अतिरिक्त "उद्दे हगण, चारणगण, ऋतुवाटिकगण, वैशवाटिकगण, मानवगण" और "काटिकगरण' ये छः गण प्रार्य सुहस्ती सूरि के भिन्न भिन्न शिष्यों से प्रसिद्ध हुए हैं। आर्य सुहस्तीजी का युगप्रधानत्व समय 'जिननिर्वाण' २६८ से ३४३ तक का माना है। इससे इनके शिष्यों का समय भो यही अथवा कुछ परवर्ती विक्रमपूर्व के द्वितीय शतक में पड़ता है। यह समय मौर्य राजा सम्प्रति के राजत्वकाल के साथ ठोक मिल जाता है। प्रार्य सुहस्ती के शिष्यों से छः गणों, २४ शाखाओं और २७ कुलों का प्रादुर्भाव होना यह बताता है कि उस समय में जैन श्रमणों की संख्या पर्याप्त बढ़ी हुई थी और धर्म प्रचार के केन्द्र पूर्व में पूर्व बंगाल, दक्षिण में विन्ध्याचल को घाटियों, पश्चिम में पूर्व-पंजाब और उत्तर में गोरखपुर और श्रावस्तो के प्रदेश तक स्थापित हुए थे और अपने अपने केन्द्रों से निग्रन्थ श्रमण जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे। यद्यपि राजा सम्प्रति की प्रेरणा से प्रार्य सुहस्ती ने अपने श्रमणों को दक्षिण भारत में भी विहार करवाया था, परन्तु उस प्रदेश में उस समय में व्यवस्थित केन्द्र नियत नहीं हुए थे।
अब हम कल्प-स्थ विरावलीगत परण, शाखा और कुलों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करेंगे कि इन गण आदि का प्राचीनत्व साधक स्थविरावली के अतिरिक्त भी कोई प्रमाण है या नहीं ?
स्थविररावली के गण आदि के प्राचीनत्व का विच र करते हो हमें मथुरा का देवनिर्मित स्तूप याद आ जाता है। यों तो जैनों के अनेक प्राचीन तीर्थस्थान हैं जिनमें देवनिर्मित स्तूप भी एक प्राचीन तीर्थ है, परन्तु अन्य जैन प्राचीन तीर्थ धर्म-चक्र, गजानपद, अहिच्छत्रा नगरी प्रादि प्राचीन स्थानों की अब तक शोध-खोज नहीं हुई है, जितनी कि मथुरा समीपवर्तीदेवनिर्मित स्तूप की, जो आजकल "ककालो टोला' के नाम से प्रसिद्ध है,
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