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प्रथम परिच्छेद ]
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अंग्रेजों के शासनकाल में हुई है ! देवनिर्मित स्तूपं विक्रम की १४वीं शती तक जैनती के रूप में प्रसिद्ध था, परन्तु विदेशियों के आक्रमण से और खास करके इस देश में मुसलमानों की राज्यसत्ता स्थापित होने के बाद यः स्थान धीरे-धोरे भूला जाने लगा था । जैनमियों का उत्तर भारत से सामूहिक रूप से दक्षिण की तरफ प्रयारण हो गया और उत्तरीय जैन-तीर्थ धीरे-धीरे स्मृतिपट से उतर गर । अंग्रजों के शासन में प्राचीन स्मारकों की जांच करते हुए कंकाली टोला भी खोदा गया और भीतर से जैन स्तूप के अतिरिक्त अनेक जैन-मूर्तियां, पूजापाट, अन्यान्य स्मारक, प्राचीन लेखों के साथ हाथ लगे और उन प्राचीन लेखों से ज्ञात हुमा कि यह एक अरिप्राचीन जैन स्तूप है, जो कुप रावशीय राजा कनिष्क आदि के समय में उत्तर भारत का एक प्रति प्रसिद्ध जैनतीर्थ था।
कंकाली टोला में से प्रकट हुए जो प्राचीन लेख मिले थे, वे डा० कनिंघहीम के आचिनो लॉजिकल रिपोर्ट के ३ वॉल्यूम में छपे थे और वहाँ से उद्धत कर अन्यान्य गोधकों ने उन पर प्रकाश डाल कर अपनी तरफ से छपाये थे। यहां हम "श्री माणिकचन्द्र जैन-ग्रन्थ-माला" के ४५वें ग्रन्थ के रूप में छपे हुए "जैन शिलालेख-संग्रह" के द्वितीय भाग में प्रकाशित उक्त स्तूप के शिलालेखों के आधार से कल्प-स्थविरावलीगत गणों, शाखामों ओर कुलों को प्राचीनता के सम्बन्ध में ऊोह करके प्रमाणित करेंगे कि "कल्प-स्थविरावल." मार्य देवद्धिक्षमाश्रमण के समय का सन्दर्भ नहीं है, अपितु भगवान् महावीर के निर्वाण की तीसरी शती में लिखी हुई एक प्राचीन पट्टावली है ।
मथुरा के स्तूप से निकले हुए कुषाणकालीन लगभग ८३ लेखों में 'जैनधर्म सम्बन्धी विवरण है उनमें से ४८ लेखों में गण, कुल, शाखामों के उल्लेख हैं, स्थविरावलीगत पाठ गणों में से इन लेखों में ३ गणों के उल्लेख हुए हैं, कोटिकगण के २० बार, चारणगण के १२ बार और उद्दहगरण के २ बार। स्थविरावलीगत ४४ स्थविर शाखामों में से ८ शाखाओं का २५ लेखों में उल्लेख हुआ है और स्थविरावलीगत २७ कूलों में से १३ कुलों का ३२ लेखों में उल्लेख मिलता है ।
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