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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३०७ "अनायतन" प्रतिपादक स्थान नहीं मिला । श्रीपूज्य के पास उन्होंने मनुष्य भेजा और पूज्य ने उनकी पृच्छा के अनुसार "प्रोपनियुक्ति' का उद्देश कहा, प्रद्युम्नसूरि आदि ने पूज्य के कथनानुसार उद्देश की गवेषणा करते हुए वह स्थल पाया। अनायतन प्रतिपादक गाथा-सम्बद्ध-वृत्ति के अक्षर अन्य गाथाक्षरों के साथ मिला कर उन पर विचार किया। प्रातः समय प्रद्युम्नाचार्य अभयड दण्डनायक के साथ जिनपतिसूरि के स्थान पर जयकार पुकारते, क्या वादसमाओं का यही पोजिशन होता है ? अजमेर में इसी प्रकार की धांधागर्दी से पद्मप्रभाचार्ग को अपमानित किया था । ___ सभा शास्त्रार्थ का मनचाहा वर्णन करने के बाद गुर्वावलीकार लिखता है"दिनद्वयानन्तरं प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहकः सबलवाहनो महाराजाधिराजश्रीपृथ्वीराजः श्री अजयमेरो निजधवलगृहे समागत्य ततः स्थानाद्धस्तिस्कन्धाधिरूढेन जयपत्रेण सह पौषधशालायामागतो ददौ च जयपत्रं श्रीपूज्यानां हस्ते । पठितश्चाशीर्वादः श्रीपूज्यैः श्रावकैश्च कारित महावर्धापनकं, तस्मिंश्च वर्धापनके श्रे० रामदेवेनात्मगृहात् पारुत्थद्रम्माः षोडश सहस्राणि ध्ययीकृताः।" __अजमेर के राजा साहब हाथी पर आरुढ़ होकर जिनपतिसूरिजी को उनके स्थान पर "जयपत्र" देने जाते हैं, सूरिजी राजा साहब को आशीर्वाद देते हैं और सूरिजी के भक्त बघाई बांटते हैं, सूरिजी के भक्त सेठ रामदेव अपने घर से सोलह हजार रुपया खर्च करते हैं। यहां कोई गुर्वावलीकार को पूछे कि आपके प्राचार्य की विजय पर नगर में वर्धापन तो श्रावकों ने ही किया था। तब सेठ रामदेव के घर से खर्च होने वाले १६०००) सोलह हजार रुपया किस मार्ग से गया, इसका कोई उत्तर दे सकता है ? जिस प्रकार से अजमेर में धांधागर्दी से पद्मप्रभाचार्य का अपमान किया गया, उसी प्रकार से आशापाल्ली में प्रद्युम्नाचार्य को कृत्रिम प्रमाण उपस्थित करके अपनी जीत दिखाई गई, दो पत्र छिपाने का जो हो हल्ला मचाया था, वास्तव में वे दो पत्र "प्रोधनियुक्ति” की वृत्ति में घुसेड़े हुए थे, उनका तथा मूल वृत्ति का सम्बन्ध ठीक ढंग से न बैठने के कारण प्रद्य म्नसूरि दो पत्रों को एक तरफ रखकर अगले पत्र के साथ पूर्वपत्र का सम्बन्ध मिलता है या नहीं इसकी जांच कर रहे थे, इतने में जिनहितोपाध्याय ने पान छिपाने का जो हल्ला मचाया, वीरनाग जैसे ने चोरी करने के दण्ड की बात चलाई और हण्टर चलने लगे । क्या शास्त्रार्थ-सभाएं इसी Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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