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________________ ३०८ ] [ पट्टावली-पराग - माए और निचली भूमिका पर बैठे। जिनपति भी ऊपर से सपरिवार नीचे पाए, संस्कृत भाषा में चर्चा का प्रारम्भ हुमा । श्री जिनपतिसूरिजी ने प्रद्युम्नाचार्य की प्रत्येक युक्ति का खण्डन कर खरतर मार्ग का स्थापन किया। चर्चा के आखिरी भाग में "प्रोघनियुक्ति" में से "पायतन अनायतन" सम्बन्धी अधिकार पढ़ने का कार्य प्रद्युम्नाचार्य को सौंपा गया। अधिकार पढ़ते-पढ़ते प्रद्युम्नाचार्य ने वृत्ति के दो पत्र छोड़कर अगला पत्र पढ़ना शुरु कर दिया उस समय पूज्य के पास बैठे हुए जिनहितोपाध्याय ने हाथ पकड़ कर कहा - प्राचार्य पहले के दो पत्र पढ़ने के बाद यह पत्र पढ़ने का है। प्रद्युम्नाचार्य व्याकुल हो गये थे, इधर-उधर के पत्र उलटने लगे, तब "श्रीमाल वंशीय वीरनाग ने प्रकार की होती हैं ? जिनपतिसूरि के भक्त अपने आचार्य को 'राजसभा में छत्तीस बाद जीतने वाला' इस विशेषण से उल्लिखित करते हैं, दो समानों के वाद का .. वर्णन तो हम पढ़ चुके हैं, यदि इसी प्रकार की शेष चौतीस सभात्रों में जिनपतिसूरिजी ने विजय पायी हो तो हमें कुछ कहने की जरूरत नहीं है। ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध से जब से जिनेश्वरसूरि तथा इनके शिष्यों ने बैत्य-वासियों के विरुद्ध प्रचार शुरू किया था, तब से आज तक कई कृत्रिम गाथाओं कृत्रिम कुलकों और कृत्रिम ग्रन्थों का निर्माण हुआ, जिनमें न कर्ता का नाम है, न ग्रन्थ का नाम, कृत्रिम नामों से गाथा, श्लोक, कुलक, बनते ही जाते हैं, यह दुःख का विषय है, इस प्रकार अप्रामाणिकता को धारण कर विरोधी को नीचा दिखाना किसी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। "प्रोधनियुक्त वृत्ति" के नाम पर गुर्वावलीकार ने ४६ से ५७ के अंक वाली जिन ८ गाथाओं को उद्धृत किया है, उनमें से अधिक गाथाएं कृत्रिम हैं, “ोधनियुक्ति" में अथवा उसकी वृत्ति में उक्त गाथाएं दृष्टिगोचर नहीं होती, जिनेश्वरसूरि की परम्परा के विद्वानों द्वारा निर्मित ग्रन्थों में अथवा उनकी वृत्तियों में ये गाथाएं बहुधा देखी जाती हैं, जैसे "धर्मरत्न-प्रकरण" की स्वोपज्ञ वृत्ति में, इन गाथाओं द्वारा प्रद्युम्नाचार्य को जीतने की बात एक प्रकार का षड्यन्त्र ही प्रतीत होता है, विधिर्मियों के द्वारा संगठित इस प्रकार के प्रपंचों से जैन साहित्य पर्याप्त दूषित हुआ है, हम आशा करते हैं कि खरतरगच्छ के विद्वान् साधु तथा भक्त श्रावक मेरी इस चुनौती को ध्यान में लेंगे तो भविष्य में इस विषय पर अधिक लिखने का प्रसंग नहीं आयेगा । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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