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तृतीय-परिच्छेद ]
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अभय दण्डनायक को कहा - क्या तुम्हारे नगर में उसी को दण्ड दिया जाता है जो रात को चोरी करता है, दिन में चोरी करने वालों को अपराधी नहीं माना जाता ? अभय दण्डनायक ने कहा - हे हेडावाहक ! तुमने क्या कहा ? वीरनाग ने कहा - देखो देखो, प्राचार्य ने दो पत्र छिपा दिये। यह सुनते ही दण्डनायक ने उसके पीठ पर चमड़े से मढ़ा वेत जमा दिया। जिनपतिसूरि ने "प्रोपनियुक्ति वृत्ति" में से "नाणस्स दसणस्स य" इत्यादि आठ माथाओं का व्याख्यान करते हुए "जिनचैत्य" तथा "जिनप्रतिमा' को "मनायतन प्रमाणित किया" और प्रद्युम्नाचार्य ने मौन धारण किया। थोड़ी देर के बाद जिनपतिसूरिजी के मागे उन्होंने कहा - प्राचार्य ! हमारे नाम वाले पराजयसूचक रास, काव्य, चौपाई न बनवानी चाहिये, न पढ़वानी चाहिये । श्री पूज्य ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया, संघ में महान् प्रानन्द उमड़ पड़ा। श्री पूज्य, साधु और श्रावक समुदाय के साथ अपने उपरितन स्थान पहुँचे। प्रद्युम्नाचार्य भी लज्जावश नीचे देखते हुए अपनी पौषधशाला में गए।
___ संध के अन्दर और बाहर बड़ा आनन्द फैला। भा० शालिक, वैद्य सहदेव, ठ० हरिपाल, सा० क्षेमंकर, सा० सोमदेवादि समुदाय ने बड़े ठाट के साथ वर्धापन कराया। इस समय दण्डनायक अभय ने सोचा - ये यहां से आगे जाकर मेरे गुरु के पराजय की बात तो अवश्य करेंगे, इसलिए इन्हें यहीं कुछ शिक्षा करलू। मालव देश की तरफ गुजरात का लश्कर गया हना था, अपनी तरफ से एक विज्ञनि पत्र देकर एक मनुष्य को जगहेव प्रतीहार के पास भेजा। इधर दूसरे ही दिन संघ में राजाज्ञा जाहिर की "महाराजाधिराज भीमदेव की प्राज्ञा है कि इस स्थान से हमारी प्राज्ञा से ही तुम जा सकते हो" उक्त प्राज्ञा जारी करने के साथ ही, संघ की निगरानी के लिए अभय ने गुप्त रूप से १०० राजपूतों को नियत कर दिया। संघ में से भण्डशालिक, वैद्य सहदेव, व्य० लक्ष्मीधर, ठ० हरिपाल, सा० क्षेमंधर मादि श्री पूज्य के पास गए और अभयड दण्डनायक के दुष्ट अभिप्राय की सूचना की। श्री पूज्य ने कहा - कुछ भी चिन्ता न करो, श्री जिनदत्तसूरिजी की कृपा से सब अच्छा होगा। परन्तु सब संघ
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