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________________ [ पट्टावली-पराग फैलाई१ और दोनों को मामने-सामने भिड़ाया। शास्त्रार्थ का नाटक हुआ पौर जिनपति ने कहा- दूसरे सिद्धान्त-ग्रन्थ तो दूर रहो, हम "प्रोपनियुक्ति" के प्रमारणों से देवगृह तथा जिनप्रतिमा को अनायतन प्रमाणित कर दें तो हमारी जीत मानी आयगी ? प्रद्युम्नसूरि ने कहा - प्रमाण, परन्तु अभी टाइम बहुत हो गया है, आगे बात कल प्रभात को होगी। प्रद्युम्नाचार्य ने रात्रि के समय अपने पक्ष के प्राचार्य और पण्डितों के साथ प्रदीप के प्रकाश में "मोघ-नियुक्ति" सूत्रवृत्ति के पुस्तक पढ़े, परन्तु १. क्षेमंकर यद्यपि प्रद्य म्नाचार्य का पिता लगता था, तथापि वह स्वयं खरतरगच्छ का अनुयायी बन चुका था और अपने पुत्र प्रद्युम्नाचार्य को किसी प्रकार खरतरगच्छ में खींचना चाहता था । प्रद्युम्नाचार्य एक विद्वान् प्राचार्य थे, आशापल्ली के लोग उन पर मुग्ध थे। क्षेमंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ के नाम पर प्रपंच में फंसा दिया। कैसा भी विद्वान् क्यों न हो वह झूठे जाल में फंसकर अपमानित हो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। जिनपलिसूरि के भक्त "जिनहितोपाध्याय" और "रामदेव” जैसे गृहस्थ जाल बिछाने में सिद्धहस्त थे । अजमेर में ऊकेशगच्छय प्राचार्य पद्मप्रभ को इसी प्रकार के जाल में फोसकर अपमानित किया था, अजमेर के राजा पृथ्वीराज के परिकर को जिनमें से अनेक पद्मप्रभाचार्य के पुराने भक्त थे, धन की थैलियां पाकर पद्यप्रभाचार्य के विरुद्ध हो चुके थे, जिस बात की पद्मप्रभाचार्य ने पृथ्वीराज के सामने सभा में खुल्ली शिकायत की थी, प्राचार्य ने कहा - "महाराज ! मण्डलेश्वरो लञ्चाग्रहण एव प्रवीणो न गुणिनां गुणग्रहणे" अर्थात् हे राजा साहब! आपका मण्डलेश्वर कई मास लांच लेने में ही प्रवीण है. गुणी के गुण ग्रहण करने में नहीं, इस प्रकार राजा के सामने शिकायत होने पर भी राजा ने उस तरफ कुछ ध्यान नहीं दिया । शास्त्रार्थ करने के लिए इस प्रकार की सभाएं नहीं होती, उसमें प्रमुख होता है, मध्यस्थ सभ्य होते हैं, वादी प्रतिवादी के वक्तव्यों को लेखबद्ध कर उनके ऊपर से फैसला देने वाले निर्णायक होते हैं, अजमेर की शास्त्रार्थसभा क्या थी, तमाशा करने वालों का थियेटर था। तमाशाबीन लोग इकट्ठे हो जाते, शास्त्रार्थ करने वाले मुख से असभ्य वचन निकालकर विरोधी को अपमानित करते थे, राजा साहब सभा में पाते और पूछते - कैसे कौन जीता? कौन हारा ? उनके गुर्गे जिनकी तरफ से पेट भर जाता, उनकी तरफ अगुली कर कहते - ये जीते और उनकी जय Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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