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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३५३ पाट एह जिनकलभनु देज्यो, इसमो कहई संबत् ११ पंचावन अभयदेवसूरि गुरु देवलोकि बहुता, भवत्रि जइ मोक्ष जासी ॥" पट्टावली के उपर्युक्त फिकरे की अनेक बातें "गणधर सार्धशतक" की बातों से विरुद्ध जाती हैं, इसलिए ऐसी कल्पित पट्टावली के आधार से अभयदेवसूरि का सत्तासमय निर्णीत करना धोखे से खाली नहीं, अभयदेवसूरिजी ने नवांग सूत्रों की वृत्तियां तो बनाई ही हैं और अधिकांश वृत्तियों के अन्त में उनके निर्माण समय का भी पारने निर्देश किया है, "पंचाशक" आदि प्राचीन प्रकरणों पर भी आपने वृत्तियां लिखी हैं, परन्तु आज तक हमने अभयदेवमूरिजी की किसी भी वृत्ति या टीका की प्रशस्ति विक्रम संवत् ११२८ के बाद की नहीं देखी। वृद्धावस्था या शारीरिक अस्वस्थता के कारण साहित्यनिर्माण के कामों के लिए आप अशक्त हो चुके थे, उसके वाद छः सात अगर दस ग्यारह वर्ष तक जीवित रहकर स्वर्ग प्राप्त हुए हों तो अश्चर्य की बात नहीं है, वृद्धपौषधशालिक पट्टावली आदि में इनका स्वर्गवास सं० ११३५ या ११३६ में होना लिखा है, वह ठीक प्रतीत होता है। जिनेश्वरसूरि के समय की प्रस्तुत पट्ट वली में जिनदत्तसूरिजी के सम्बन्ध में अनेकानेक चमत्कार की अद्भुत बातें मिलती हैं, जिनकी सुमतिगरिग की 'सार्द्धशतक की बड़ी टीका' में सूचना तक नहीं है, प्राचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी की अनेक कृतियां मैंने पढ़ी हैं, उनमें जोश है, लगन है, अपने कार्य का दृढ अाग्रह है, ये सभी बातें आपकी धार्मिक-संशोधक वृत्ति की परिचायक हैं, परन्तु दुःख के माथ कहना पड़ता है कि पिछले भक्तों ने आपको एक चामत्कारिक जादूगर आचार्य बनाकर आपके वास्तविक जीवन को ढांकसा दिया है । भले ही अनपढ़ और अन्वश्रद्धालु भक्त लोग इन बातों से आपको महान् मानें परन्तु समझदार विचारकों के मत से तो इस प्रकार की बातें महापुरुषों के वास्तविक जीवन को अतिशयोक्तियों के स्तरों में अन्तहित कर देती हैं। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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