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________________ ३५४ ] [ पट्टावली-पराग - (२) पट्टावली नम्बर २३२७ : यह पट्टावली वास्तव में "गणधर-सार्द्ध शतक" की लघु टीका है, यह लघुवृत्ति ४३ पत्रात्मक है, इसके निर्माता वाचक सर्व राजगरिण हैं कि जिनका सत्तासमय विक्रम की १५ वीं शताब्दी है, वृत्तिकार ने वृत्ति के उपोद्घात में आचार्य जिनदत्तसूरिजी को अनेक प्रकार के ऐसे विशेषण दिए हैं, जो पिछले लेखकों ने इनके जीवन के साथ जोड़ दिये हैं, जैसे - "भूतप्रेतनिरसन, योगिनीचक्रप्रतिवोधक, कुनार्गनिरसन, प्रतिवादिसिंहनादविधान श्री त्रिभुवनगिरिदे :नियमित, पंचसप्रयतिवारण, श्री पाश्वनाथ (नव) फरण धारण, वामावतीरात्रिकस्थापन, निरन्तरागच्छद्गच्छयान, सुरासुरविर. चितांतिसेवन, इत्यादि विशेषणों में अधिकांश विशेषण ऐसे हैं, जो बृहद्वृत्ति में नहीं हैं, इससे यह प्रमाणित होता है कि या तो यह लघुवृत्ति बृहवृत्ति का अनुसरण करने वाली नहीं है, यदि यह शब्दशः बृहद्वृत्ति का अनुसरण करती है तो इसके उपोद्घात को किसी अर्वाचीन विद्वान् ने विगाड़कर वर्तमानरूप दे दिया है, इस प्रकार की प्रवृत्तियां खरतरगच्छ की पट्टावलियों में होना अस्वाभाविक नहीं, कुछ वर्षों पहले इसी लघुवृत्ति को हमने मुद्रित अवस्था में पढ़ा था, जिसमें यह छपा हुआ था कि "प्रणहिल पाटण के राजा दुर्लभराज ने श्री जिनेश्वरसूरिजी को चैत्यवासियों को जीतने के उपलक्ष्य में 'खरतर'' विरुद प्रदान किया था, वही लघुवृत्ति हमारे पास हस्तलिखित है और इसके कर्ता भी वाचक सर्वराज गणि हैं, परन्तु इस लघुवृत्ति की हस्तलिखित वृत्ति में "खरतर विरुद" देने की बात कहीं नहीं मिलती और न उपोद्घात छोड़कर जिनदत्तसूरि के जीवन में किसो चमस्कार की बात का ही उल्लेख मिलता है । अाज तक हमने खरतरगच्छ से सम्बन्ध रखने वाले सकड़ों शिलालेखों तथा मूर्तिलेखों को पढ़ा है, परन्तु ऐसा एक भी लेख दृष्टिगोचर नहीं हुअा, जो विक्रम की १४ वीं शती के पूर्व का हो और उसमें "खरतर" अथवा "खरतरगच्छ” नाम उत्कीर्ण हो, इससे जना जाता है कि "खरतर" यह "शब्द" पहले गच्छ के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता था। "जिनदत्तरि" के कठोर भाषी स्वभाव के कारण उनके विरोधी जिनदत्त सूरि के लिए "खरतर" यह शब्द प्रयोग में लाते थे, तब Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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