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________________ ३५२ ] [ पट्टावली-पराग को प्राचार्य पद देते, अन्तिम समय में प्रसन्नचन्द्राचार्य ने मुझे एकान्त में सूचित किया था, कि मुझे गुरु-महाराज की प्राज्ञा का पालन करने का मौका नहीं मिला, परन्तु तुम तो जिनवल्लभ को आचार्य बनाकर गुरुमहाराज की आज्ञा का पालन कर ही देना।" उपर्युक्त बातों में सत्यता व हां तक होगी यह कहना तो असंभव है, परन्तु इतना तो निश्चित है कि जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि का पट्टधर बनाने सम्बन्धी बात में वास्तविकता से कृत्रिमता अधिक होने का सभव प्रतीत होता है, इसके अनेक कारण हैं, प्रथम तो यह कि 'खरतरगच्छ' के किसी भी पट्टावलीकार ने श्री अभयदेवसूरिजो के स्वर्गवास का समय तक नहीं लिखा, उनके अनुयायो होने का दावा करने वालों के पास अपने पूर्वज प्राचार्य के स्वर्गवास का समय तक न हो यह क्या बताता है ? अभयदेवसूरिजो सूत्रों के टीकाकार थे, इस कारण से अन्यान्य गच्छ को पट्टावलियों में उनके स्वर्गवास का समय संगृहीत हैं, कोई उन्हें विक्रम सं० ११३५ में स्वर्गवासी हुआ मानते हैं तो दूसरे इन्हें संवत् ११३६ में परलोकवासी हुमा मानते हैं, पर आश्चर्य की बात तो यह है कि उक्त दोनों संवत् अन्यगच्छीय पट्टावलियों में मिलते हैं, खरतरगच्छ की किसी भी प्राचीन पट्टावली में नहीं। हमारी देखो हुई और पढ़ी हुई कोई १५ खरतरगच्छोय पट्टावलियों में से केवल एक पट्टावली में है - जिसकी कि समालोचना हो रही है। इस भाषा की पट्टावलो में अभय देवमूरि के स्वर्गवास के विषय में निम्नलिखित शब्द दृष्टि-गोचर होते हैं - 'श्रो जिनवल्लभवाचकई प्रतिष्ठ्यउ मरोटिमांहे नेमिनायरउं देहरउ, तिहाथको विहार करी गुजराती श्री अभयदेवतरि कन्हई प्रावी वांदी काउं मुनइ सिद्धांत भरणावामो, तिवारई गुरे काउं, तप विण वो सिद्धान्त भरिणवा नहीं, कितराएक दिन अभयदेवसूरि कन्नइ रहि पछइ गुरु अभयदेव कहई हुतो भरणावऊं जउं गुर कन्नहा जई अनुमति मांगी कागल लिखाबी ल्यावइ तो, अम्हारो उपसम्पदा ल्यइ तो, गुरु कन्नहई जई घणो अाग्रह मांडी अनुमति लई कागल लिखावी अभयदेवसरि कन्हइ अाधा, अभयदेवसूरि उपसम्पदा देइ तप विहरावी, सिद्धान्त भरणाया, महापंडित पाट जोग्य महासंवेगी देवभद्राचार्य नई काउं माहरउ ___Jain Education International 2010_05 For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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