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तृतीय-परिच्छेद ]
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पार्टी जिनवल्लभ के भाव तक नहीं पूछ सकी, परन्तु जिनवल्लभ गणि ने पाटण में चैत्यवासियों के सामने जो विरोध की नींव डाली थी, वह धोरेधीरे मजबूत होती गई । आचार्य चन्द्रप्रभ तथा प्राचार्य प्रार्यरक्षित मादि ने जिनवल्लभ की नींव पर तो नहीं, पर अपनी नयी विरोधी भित्तियों पर चंत्यवासियों के सामने ही नहीं, सारे जैन संघ के सामने अपने नये विरोध खड़े किये । प्राचार्य चन्द्रप्रभ ने प्राथमिक रूप में साधु द्वारा जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करने का विरोध किया और धीरे-धीरे उनके अनुयायियों ने पूर्णिमा का पाक्षिक प्रतिक्रमरण और भाद्रपद शुक्ल ५ को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का प्रारंभ किया। "महानिशीथ सूत्र" के आधार पर पहले जो "उपधान" करवाया जाता था, उस प्रवृत्ति का भी त्याग किया। आर्य रक्षितसरि, जो अचलगच्छ-प्रवर्तक माने जाते हैं, उन्होंने तो चन्द्रप्रभ से भी दो कदम आगे रवखे, प्रचलित धार्मिक क्रिया-काण्ड जो 'कसी न किसी सूत्र मथवा उसकी पंचांगी का आधार रखता था, उसे छोड़कर शेष सभी परम्परागत प्रवृत्तयों का त्याग कर दिया, यहां तक कि "सूत्र की पंचांगी द्वारा प्रतिपादित नहीं है," यह कह कर श्राद्धप्रतिक्रमणादि अनेक बातों का उन्होंने त्याग किया, इस विरोध तथा नये गच्छों की उत्पत्ति का परिणाम यह हुआ कि पाटण का सघ-बंधारण जो सैकड़ों वर्षों से अक्षुण्ण चला आ रहा था, छिन्न-भिन्न हो गया।
संघ बंधारण के विनाशक समय में जिनवल्लभ गरिण से सहानुभूति रखने वाले प्राचार्य देवभद्र के ग्रुप की भी हिम्मत बढ़ी, उन्होंने गुजरात से मारवाड़ होकर चित्रकूट की तरफ विहार किया और विक्रम सं० ११६७ के प्राषाढ़ शुक्ला ६ के दिन जिनवल्लभ गणि को प्राचार्य बनाकर अभयदेवसूरि के पट्ट पर बिठाया।
जिनवल्लभ गरिण को प्राचार्य बनाकर देवभद्रसरि ने अभयदेवसूरि का पट्टधर होने की उद्घोषणा की, इसका कारण बताते हुए देवभद्र ने कहाप्राचार्य श्री अभयदेवसूरिजी ने प्रसन्न चन्द्राचार्य को एकान्त में सूचना की थी कि समय पाकर जिनवल्लभ को मेरा पट्टवर बना देना परन्तु प्रसन्नचन्द्राचार्य को अपने जीवन काल में ऐसा समय नहीं मिला कि वे जिनवल्लभ
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