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________________ ६८ । [ पट्टावली-पराग (१) वहुसमयवादी जमालि भगवान् महावीर के धर्मशासन के १४ वर्ष के अन्त में सर्वप्रथम जमालि नामक एक शिष्य ने भगवान् के एक आदेश का उल्लंघन किया। जमालि क्षत्रियकुण्डपुर का रहने वाला क्षत्रियपुत्र था। वह महावीर का जामाता लगता था, पांच सौ क्षत्रियपुत्रों के साथ महावीर के पास निग्रन्थ श्रमणधर्म को स्वीकार किया था और एकादशांगश्रुत पढ़ा था। एक बार जमालि ने अपने सहप्रवजित पांच सौ साधुओं के साथ पृथक् विहार करने की महावीर से आज्ञा मांगी, पर महावीर ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया। दूसरी, तीसरी बार पूछने पर भी भगवान की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिला, तब जमालि ५०० श्रमणों को साथ ले महावीर से पृथक् हो विचरने लगा। . एक बार वह श्रावस्ती नगरो के "तिन्दुकोद्यान के कोष्टक चैत्य" में ठहरा हा था। वहां तप और रूक्ष आहारादि के कारण इसका स्वास्थ्य बिगडा और उबर पाने लगा। शाम का प्रतिक्रमणादि नित्यकर्म करने के बाद उसने सोने को इच्छा व्यक्त की। वैयावृत्त्यकर साधु उसके लिए संस्तारक बिछाने लगा, आतुरतावश जमालि ने पूछा : 'संस्तारक हो गया ?' वैयावृत्त्यकर ने कहा : 'हो गया' जमालि उठा, पर खड़े होने के बाद मालूम हुआ कि संस्तारक बिछ रहा है। जमालि ने कहा : सस्तारक हो रहा था तब कैसे कह दिया कि हो गया ? गीतार्थ स्थविरों ने उत्तर दिया कि 'यह नयसापेक्ष वचन है, ऋजुसूत्रनय के मत से इस प्रकार के वचन सत्य माने गये हैं।' भगवान महावीर ने इसी नय को अपेक्षा से “करेमाणे कडे, डज्झमाणे डड्ड, गम्ममाणे गए, पिज्जरिज्जमाणे निज्जिणे" (क्रियमाणं कृतं, दह्यमानं दग्धं, गम्यमानं गतं, निर्जीर्यमाणं निर्जीणं; इत्यादि वव प्रियोग किये हैं और इसी नय के अनुसार “संथरिजजमारणं संथरिय" अर्थात् "संस्तारक करना शुरु किया था, इसे किया कहा, यह वचन निश्चय नय के मत से सत्य है। निश्चय नय के मत से Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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