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[ पट्टावली-पराग
हुआ हो, परन्तु स्थविरावलो की प्रति में लेखक की भूल से "बंभलिज्जिय'' हो गया हो। कुछ भी हो, हमारी राय में "ब्रह्मदासीय" नाम ही शुद्ध प्रतीत होता है।
मुद्रित स्थविरावलियों में अधिकांश में ‘वच्छलीज्ज' के स्थान में "वत्थलिज्ज" नाम दृष्टिगोचर होता है : कुल का सही नाम 'वत्सलीय" है, जिसका प्राकृत रूप "बच्छलिज्ज" है न कि "वत्थलिज्ज" ।
कोटिक गण के “वाणिज्ज" कुल के स्थान पर शिलालेखों में कोई ५ स्थानों पर "ठारिणयातो" और पांच ही स्थानों पर “स्थानिकातो कुलातो" उत्कीर्ण मिलता है। जहां तक स्मरण है किसी प्राचीन ग्रन्थ की प्रशस्ति में भी "स्थानीय" नाम “कुल" के अर्थ में पढ़ा है। इससे हम "वाणिज्य" अथवा "वरिणदि" कुल के स्थान पर "स्थानीय” कुल विशेष ठीक समझते हैं, "चारण गण" के "प्रीतिधर्मक" कुल के स्थान पर पाठान्तर "विचिधम्मयं" और शिलालेखों में "प्रीतिधामिके' आदि अशुद्ध नाम मिलते हैं। वास्तव में इस कुल का खरा नाम "प्रीतिधर्मक' ही है। चारण गण के एक कुल का नाम मुद्रित स्थविरावलियों में "हालिज्ज" पाता है, तब शिलालेखों में कहीं 'अर्यहाट्टकीय", कहीं "हट्टियातो", कहीं "आर्यहट्टिकीय" और कहीं "मयहट्ठीये' इत्यादि खुदे हुए मिलते हैं। नाम की आदि में 'अय्य' अथवा 'आर्य' शब्द होने से हमारा अनुमान है कि यह नाम किसी प्राचार्य का है, जो शुद्ध रूप में "प्रार्यहस्ती" यह नाम हो तो इसका खरा रूप 'आर्यहस्तीय-कुल" होना चाहिए। स्थविरावली में "प्रार्य" शब्द न होने के कारण मूल नाम बिगड़ कर कुछ का कुछ हो गया है। वास्तव में इसका प्राकृत रूप "प्रज्जहत्थिय" होना चाहिए।
चारण गण के एक कुल का नाम स्थविरावली की पुस्तकों में "प्रनवेडयं" और "प्रज्जचेडयं" इन दो रूपों में उपलब्ध होता है। मथुरा के एक शिलालेख में इस कुल का नाम "शायं-चेटके-कुले” इस प्रकार उल्लिखित हुआ है। इससे निश्चित हैं कि स्थविरावली का खरा पाठ "मज्जचेडयं" है।
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