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________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १८३ उसने कहा - हमें मालूम नहीं। बाद में प्राचार्य खम्भात पहुँचे, संघ ने प्रवेशोत्सव किया। चुगलीखोरों ने खोज करने वालों के पास पता भेजा और उन्हें बन्दीखाने में रक्खा। संघ से १२ हजार लेकर उन्हें छोड़ा। इस घटना से प्राचार्य को बड़ा दुःख हुप्रा । उन्होंने प्रायम्बिल तप करके सरिमन्त्राधिष्ठायक को याद किया, अधिष्ठायक का वचन हुमा, “माक्षेप करो, द्रव्य वापस मिल जायगा। बाद में शतार्थी पं० हर्ष कुल गणि, पं० संघहर्षगरिण, पं० कुशल संयम गणि और शीघ्रकवि शुभशील गणि प्रभृति चार गीतार्थो को चम्पकदुर्ग भेजा और वहां बादशाह के पास जाकर अपनी काव्य-कला से बादशाह को खुश कर संघ से लिया हुप्रा द्रव्य वापस करवाया। सं० १५७८ में पूज्य हेमविमलसूरि ने पाटन में चातुर्मास्य किया। उस वर्ष में पूज्य के आदेश से श्री प्रानन्दविमलसूरिजी कुमरगिरि में चातुर्मास्य कर रहे थे, वहां पूज्य की प्राज्ञा के बिना एक साध्वी को दीक्षा दी, जो अवस्था में छोटी थी। हेमविमलसूरिजी ने कहा - मेरी प्राज्ञा के बिना वीक्षा कैसे दी ? इसको छोड़ दो। इतना कहने पर भी प्रानन्दविमलसूरि ने छोड़ा नहीं और सिद्धपुर, सिरोही प्रादि स्थानों में चार चातुर्मास्य करके गुजरात में प्राकर श्री हेमविमलसूरि को बिना पूछे हो सं० १५८२ के बैशाख सुदि ३ को अलग उपाश्रय में ठहरे। वहां पर तैलधूसक योग से कपड़े मैले करके रहे। इसी प्रकार ऋषि-मतियों की प्रवृत्ति हुई। सं० १५८३ में प्राचार्य का बिसलपुर में चौमासा था, आसोज महीने में पूज्य के शरीर में वेदना उत्पन्न हुई, तब चौमासे में वटपल्ली से श्री मानन्दविमलसूरि को बुलाया और गुरु ने कहा – गण का भार ग्रहण कर, उन्होंने कहा - गण का भार ग्रहण करने को मेरी शक्ति नहीं है, तब गीतार्थ संघ के साथ श्री हेमविमलसूरिजी ने प्रानन्दविमलसूरि के समक्ष अपने पट्ट पर श्री सौभाग्यहर्षसूरि को प्रतिष्ठित किया। सं० १५८३ के आश्विन शुक्ल १३ के दिन हेमविमलतूरि स्वर्गवासी हुए । सं० १५८३ में ऋषिमत की उत्पत्ति हुई। द्विवन्दनिक गच्छ से आए राजविजयसूरि ने ऋषिमत से "लघुउपाश्रयक" मत निकाला। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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