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________________ [ पट्टावलो-पराग आर्य सुहस्ती के पट्टधर श्री सुस्थित और सुत्रतिबुद्ध जो कोटिक और काकन्दक कहलाते थे, करोड़ों बार सूरिमन्त्र का जाप करने से अथवा कोट्यश सूरिमन्त्रधारक होने से उनका गण कोटिक कहलाता था। कोटिक नाम के सम्बन्ध में प्राचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरिजो महाराज कहते हैं : मार्य वज्रस्वामी तक सूरिमन्त्र करोड़ों वार तक जपा जाता था, इसीलिये सुस्थितसुप्रतिबुद्ध के गण का नाम “कोटिक” प्रसिद्ध हुपा था। तब प्राचार्य श्री गुणरत्नसूरि अपने गुरुपर्व-क्रम के वर्णन में लिखते हैं - "उस समय सूरिमन्त्र का ध्यान करने वाला श्रमण "चार ज्ञानवान्" बनकर सर्वज्ञ दृष्ट द्रव्यों में से एक कोट्य श लगभग द्रव्य देखता था, इस कारण से लोक में सुस्थित सुप्रतिबुद्ध और उनका "गरण" "कोटिक" नाम से प्रसिद्ध हुए। प्राचार्य जिनप्रभसूरि ने अपनी “सन्देहविषौषधि' नामक "कल्पटोका" में कोट्यंश शब्द का प्रयोग किया था और उन्हीं के अनुकरण में पिछले लेखकों ने "कोटीश" "कोट्यश" प्रादि शब्द सूरिमन्त्र के साथ जोड़ कर, अपनो-अपनी समझ के अनुसार "कोटिक" शब्द की व्याख्या की है। इस सम्बन्ध में हमारी राय में "कोटिक' शब्द "कोटिवर्षीय" शब्द का संक्षिप्त रूप है। प्राचार्य सुस्थित कोटिवर्ष नगर के रहने वाले थे, इसीलिये "कोटिक" कहलाते थे और उनसे प्रचलित होने वाला गण भी "कोटिक" नाम से प्रसिद्ध हुआ था। सूरिमन्त्र प्रादि जाप की कल्पनाएं कल्पना मात्र हैं। सिरिइंरदिन्न सूरी, दसमो १० इक्कारसो म विनगुरू ११ । बारसमो सोहगिरी १२, तेरसमो वयरसामी गुरू १३ ॥१५॥ - 'माचार्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध के पट्ट पर दसवें इन्द्रदिन्नसूरि, इन्द्रदिन्नसूरि के पट्ट पर ग्यारहवें आर्य दिन्नगुरु, आर्य दिन के पट्ट पर बारहवें सिंहगिरि और सिंहगिरि के पट्टधारी तेरहवें प्राचार्य श्री वज्रस्वामी हुए। मार्य सुस्थित१ सुप्रतिबुद्ध, इन्द्रदिन्न, दिन्न और सिंहगिरि के समय के सम्बन्ध में पट्टावलियों में कोई भी उल्लेख नहीं मिलता। प्रार्य वज्रस्वामी (१)-अचल गच्छ की बृहत् पट्टावली में प्राचार्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध का स्वर्ग Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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