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द्वितीय-परिच्छेद ]
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प्राचार्य भद्रबाहु ने ४५ वर्ष की अवस्था में दोक्षा लेकर, १७ वर्ष तक सामान्य व्रतीपर्याय में रहे और १४ वर्ष तक युगप्रधान पद भोगा । ७६ वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण से २२२ वर्ष में प्रापश्री ने स्वर्ग प्राप्त किया।
"सिरिथूलभद्दसत्तम७, अट्टमगा महगिरी सुहत्थी ८ अ ।
सुट्टिय सुप्पडिबुद्धा, कोडिय-काकंगदा नवमा ६ ॥४॥" 'प्राचार्य संभूतविजय और भद्रबाहु के पट्ट पर सातवें पट्टधर स्थूलभद्रजी हुए और स्थूलभद्र जी के पट्ट पर प्रार्यमहागिरि तथा आर्य सुहस्ती नामक दो प्राचार्य हुए और प्रार्य सुहस्ती के पट्ट पर कोटिक काकन्दक नाम से प्रसिद्ध सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध नामक दो आचार्य हुए :'
प्राचार्य स्थूलभद्र ३० वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रहकर प्रार्य संभूतविजयजी के हाथ से प्रवृजित हुए थे और २४ वर्ष तक व्रत-पाय में रहकर भद्रबाहु के बाद युगप्रधान बने और ४५ वर्ष तक युगप्रधान पद भोगा, पौर जिननिर्वाण से २६७ वर्ष के अन्त में ६६ वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए।
श्री स्थूलभद्रजी के पट्टधर प्रार्य महागिरि और सुहस्ती दो गुरु-भाई थे। इनमें प्रार्यमहागिरिजी ६० वर्ष की उम्र में प्रव्रज्या लेकर ४० वर्ष तक सामान्य श्रमण रहे और ३० वर्ष तक युगप्रधान पद भोगकर १०० वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण से २९७ के अन्त में स्वर्गवासी हुए।
स्थूलभद्र के द्वितीय पट्टधर प्रार्य सुहस्तीजी ३० वर्ष की वय में दीक्षित होकर २४ वर्ष तक सामान्य व्रती रहे। अनन्तर ४६ वर्ष तक युगप्रधान पद भोगा, और १०० वर्ष का आयुष्य पूरा करके आर्य सुहस्ती जिननिर्वाण से ३४३ वर्ष में स्वर्गवासी हुए । प्राधुनिक नहीं बल्कि १०००-८०० वर्षों की पुरानी है और इसी भूल के परिणामस्वरूप हमारी पट्टावलियों में अनेक विषयों में विसंवाद उपस्थित होते थे, परन्तु इस परिमार्जन के बाद सभी विसंगतियां मिट जाती हैं, इतना ही नहीं, परन्तु "तित्थोगाली पइन्नय” में लिखी हुई, "राजत्त्वकाल गणना" के साथ भी परिमार्जित स्थविर कालगणना ठीक बैठ जाती है।
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