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________________ तृतीयपरिच्छेद ] [ ३३५ जिनचन्द्रसूरि की दो मूर्तियों कपर्दियक्ष, क्षेत्रपाल, अम्बिका आदि की मूर्तियां उसमें प्रतिष्ठित हुई । शत्रुञ्जय पर विधीयमान प्रासाद योग्य दण्ड- ध्वज की प्रतिष्ठा भी इसी प्रतिष्ठा महोत्सव में की। उसके बाद उसी वर्ष में दिल्ली निवासी सा० रयपति श्रावक ने बाहशाह श्री गयासुद्दीन का फरमान हासिल कर पाटन श्री पूज्य को अपनी तरफ से विज्ञप्ति करने के लिए मनुष्य भेजे और श्री जिनकुशलसूरिजी ने भो तीर्थयात्रा का आदेश दिया । गुरु प्रदेश प्राप्त कर हृष्ट-चित्त श्रीरयपति ने अपने कुटुम्ब के अतिरिक्त योगिनोपुर का तथा योगिनीपुर निकटवर्ती अनेक गांवों का विधि-समुदाय बुला कर वैशाख वदि प्रथम ७ को योगिनीपुर से प्रस्थान किया । प्रथम संघ कन्यानयन गया और श्री महावीर देव को यात्रा करके ग्राम, नगर आदि में होता हुआ संघ नरभट पहुँचा और पार्श्वनाथ की यात्रा की, वहां से संघ फलौदी पार्श्वनाथ की यात्रार्थ गया । वहां से संघ जालोर पहुँचा और बड़े ठाट से वहां की यात्रा की, वहां से संघ भीनमाल पहुँचा और शान्तिनाथ की यात्रा की, वहां से प्रयाण कर संघ भीमपल्ली, वायड महास्थान में महावीर की यात्रा करता हुआ ज्येष्ठ दि १४ को श्री पाटन पहुँचा । पाटन के देवालयों की यात्रा की और श्री जिनकुशलसूरिजी को संघ में पधारने की प्रार्थना की । वर्षाकाल निकट जानते हुए भी श्री पूज्य संघ का अपमान नहीं करना चाहिए, इस भावना से वर्षा चातुर्मास्य की भी अवगणना कर १७ साधु और जयद्धि महत्तरा प्रमुख १९ साध्वियों के परिवार सहित सा० रयपति के संघ में सम्मिलित हुए और बड़े आडम्वर के साथ ज्येष्ठ शुक्ल ६ के दिन संघ आगे रवाना हुआ । क्रमशः दण्डकारण्य १ जैसे वालाक देश को उल्लंघन कर संघ श्री शत्रुञ्जय की तलहटी में पहुँचा, वहां पार्श्वनाथ की यात्रा की और १. गुर्वावली- लेखक ने सौराष्ट्र के "भाल" प्रदेश को दण्डकारण्य की उपमा दी है, यह उनका साहित्य विषयक अज्ञान सूचन करता है, क्योंकि उपमा वहीं दी जाती है जो Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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