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[ पट्टावली-पराग
लेना तुम्हारे लिए सुखकर न होगा, बाद में दूसरे प्राचार्य आदि वहां से विहार कर गए, इसके बाद जिनदत्तसूरिजी ने अपने विहार का निश्चय करने के लिए तीन उपवास कर देवलोक-स्थित हरिसिंहाचार्य के जीवदेव का स्मरण किया; देव उनके समीप आया और बोला - मेरा स्मरण क्यों किया है ? जिनदत्तसूरि ने पूछा, "विहार किघर करूं" देव ने कहा - "मरुस्थली आदि देशों में विहार करो।"
देवादेश के अनुसार जिनदत्तसूरि मारवाड़ में विहार करते हुए नागौर पहुँचे, वहां का रहने वाला धनदेव श्रावक उनका बड़ा आदर करता है और कहता है - यदि आप मेरा कथन माने तो मैं आपको सब का पूज्य बनालू, इस पर जिनदत्तसूरि ने कहा - हे धनदेव ! शास्त्र में श्रावक को गुरु का वचन मानने का विधान है। गुरु को श्रावक का वचन मानने का नहीं, मेरे पास परिवार न होने से लोगों में मेरी पूजा न होगी, यह नहीं मान लेना चाहिए, अधिक परिवार वाला मनुष्य ही जगत् में पूज्यता को पाता है यह एकान्त नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि अनेक पुत्रों में परिवृत भी गर्ताशूकरी विष्ठा खाती है। धनदेव को जिनदत्तसूरि का उपर्युक्त कठोग उत्तर भाया नहीं।
___ वहां से जिनदत्तसूरि विचरते हुए भजमेर पहुंचे, बाहड़देव श्रावक के गृहदेवालय में जिनदत्तसूरि देववन्दनार्थ गए, मन्यदा वहां एक अन्य प्राचार्य
गच्छ की पट्टावलियों में से प्रथम दो १७ वीं सदी की हैं तब तीन गुर्वावलियाँ १६ वीं सदी की हैं, इस प्रकार ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों खरतरगच्छ की पट्टावलियों, गुर्वावलियों में अनुकूल पाठ प्रक्षिप्त किये जाते हैं और प्रतिकूल पाठ उनमें से निकाल दिये जाते हैं, प्रस्तुत "खरतर बृहद् गुर्वावली" में से जिनदत्तसूरि वाला प्रसंग सर्वथा तो निकाला नहीं गया। परन्तु उसमें ऐसा गोलमाल किया है कि उस प्रसंग को खरे रूप में कोई समझ न सके । देवभद्रसूरि के मुख से इतना ही कहलाया कि "तुम अभी पाटन से अन्यत्र विहार करना,” अन्य आचार्यों के मुख से इतना ही कहलाया- जिनशेखर को शामिल लेना तुम्हारे लिए सुखावह नहीं है, इन गोलमाल लेखों से इतना तो निश्चित होता है कि "बृहद् गुर्वावली" समयसुन्दर, जिनराजसूरि के समय से अर्वाचीन १८ वीं सदी की हैं, और उ० क्षमाकल्याण के पहले की।
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