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________________ तृतीय-परिच्छेद ] अहमदाबाद में श्री जिनसागरसूरि द्वारा प्राचार्य-पद दिया गया और गुरुमहाराज दिवंगत हो जाने के कारण सां० १७२० में श्री बीकानेर में स्वयं ने भट्टारक-पद प्राप्त किया। सं० १७४७ में लूणकरणसर में आपका देहान्त हुना। श्री जिनचन्द्रसूरि - जिनधर्मसूरि के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसरि हुए, जिनचन्द्र को १७४६ में लूणकरण में भट्टारक-पद प्राप्त हुआ, सं० १७९४ में बीकानेर में जिनचन्द्रसूरि स्वर्गवासी हुए। श्री जिनविजयसरि - जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर जिनविजयसूरि हुए, आपको सं० १७८५ में श्री बीकानेर में जिनचन्द्रसरि ने प्राचार्य-पद दिया, उनकी आज्ञा में श्री संघ प्रवृत्ति कर रहा है। (४) पट्टावली न० २३२६ : यह पट्टावली २६ पत्रात्मक संस्कृत भाषा में लिखी हुई है, इसके लेखक ने इसका नाम पट्टावली न रखकर गुर्वावली रक्खा है, यह पट्टावली विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में प्राचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरि के समय में बनी हुई है, हमारे पास वालो प्रति का लेखनकाल सं० १९१७ है, कहीं-कहीं विस्तृत प्रसंग भी इसमें लिखे गए हैं, फिर भी सामान्य रूप में यह "गुर्वावली" खरतरगच्छीय अन्य पट्टावलियों से मिलती जुलती है, इसके सम्बन्ध में हम विशेष विवरण न देकर पट्टधरों की नामावलियां तथा उनका यथोपलब्ध समय देकर ही इसका अवलोकन पूरा कर देंगे। पट्टावली का मंगलाचरण निम्न प्रकार से है - "प्रणिपत्य जगन्नाथं, वर्धमान जिनेश्वरम् । गुरूणां नामधेयानि, लिख्यन्ते स्वविशुद्धये ॥१॥" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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