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________________ १४४ ] [ पट्टावली-पराग पाठ शिष्यों को सर्वश्रेष्ठ लग्न में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया था। कितनेक आचार्य केवल सर्वदेवसूरि को ही वट के नोचे सूरि पद देने की बात कहते हैं। प्रारम्भ में सर्वदेवसरि के श्रमण गण को लोगों ने “वट गच्छ' इस नाम से प्रसिद्ध किया और धीरे-धीरे गुणी श्रमणों की वृद्धि होने से “वटगच्छ” का हो नामान्तर "बृहद्गच्छ” प्रसिद्ध हुआ। "सिरिस देवसूरी, छत्तीसो ३६ देवसूरि सगतीसो ३७ । अडतीसइमो सूरी, पुरणोवि सिरिसव्वदेव गुरू ३८ ॥१२॥ एगुणचालीसइमो, जसभद्दो नेमिचंद गुरुबंधू ३६ । चालीसो मुरिगचंदो ४०, एगुमालीसो अजिप्रदेवो ४१ ॥१३॥" 'श्री उद्योतनसूरि के पट्ट पर श्री सर्वदेवसूरि, सर्वदेवसरि के पट्ट पर श्री देवसूरि, देवसूरि के पट्ट पर फिर श्री सर्वदेवसूरि, द्वितीय सर्वदेवसूरि के पट्ट पर श्री यशोभद्रसूरि तथा नेमिचन्द्र ये दो आचार्य हुए और इस प्राचार्य युगल के पट्ट पर श्री मुनिचन्द्रसूरि और मुनिचन्द्रसूरि के पट्ट हर ४१वें श्री अजितदेवसूरि हुए । १२ । १३॥' - आचार्य श्री सर्वदेवसूरि से महावीर की मूल परम्परा का नाम 'वट गच्छ' हुआ, तब से इस गच्छ में विद्वान् प्राचार्यो और श्रमणों की संख्या प्रतिदिन बढ़तो ही गई। परिणामस्वरूप चन्द्रकुल वट की तरह अनेक शाखामों में विस्तृत हुआ और इसके मुकाबिले में इसके सहजात 'नागिल' 'निर्वृत्ति' और 'विद्याधर' यै तीन कुल इसके विस्त र के नीचे ढंक से गए। __बड़े शिष्य सर्वदेवसूरि लब्धिधारी थे। इन्होंने विक्रम संवत् १०१० में रामसंन्य नगर में चन्द्रप्रभजिन की प्रतिष्ठा की थी, इतना ही नहीं बल्कि चन्द्रावती नरेश के नेत्र-तुल्य उच्च ऋद्धिमान् "कुंकण मन्त्री" को प्रतिबोध देकर अपना श्रमण शिष्य बनाना था। सर्वदेवसूरि के पट्ट पर जो देवसूरि हुए उनको अंचलगच्छ पट्टावलीकार ने “पद्मदेवसूरि" लिखा है। देवसूरि के पट्टधारी द्वितीय सर्वदेवमूरि ने यशोभद्र आदि आठ साधुओं को प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया था; Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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