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द्वितीय-परिच्छेद ]
[ १४५ जिनमें यशोभद्र और नेमिचन्द्रसूरि ये दोनों गुरु-भाई थे और द्वितीय सर्वदेवसूरि के पट्ट पर प्रतिष्ठित थे।
श्री यशोभद्र सूरि और नेमिचन्द्र सूरि के पट्ट पर चालीसवें प्राचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरि थे, जो विद्वान् होने के उपरान्त बड़े त्यागी थे । मुनिचन्द्रसूरि का स्वर्गवास ११७८ के वर्ष में हुआ था।
मुनिचन्द्र सूरि के अनेक विद्वान् शिष्य थे। श्री अजितदेवसूरि के अतिरिक्त वादी श्री देवसूरि जैसे प्रखर विद्वान् पाप ही के शिष्य थे। वादी देवसूरि के नाम से २४ शाखाएं प्रसिद्ध हुई थी, जो 'बादि देवसूरि-पक्ष' के नाम से प्रख्यात थीं। वादिदेवसूरि का जन्म ११३४ में, दीक्षा ११५२ में, आचार्य-पद ११७४ में और स्वर्गवास १२२६ के वर्ष में हुआ था।
मुनिचन्द्र सूरि के पट्ट पर ४१वें श्री अजितदेवसूरि हुए, जिनके समय में १२०४ में "खरतर", १२१३ में "पांचलिक", १२३६ में “सार्द्धपौर्णमियक" और १२५० में "प्रागमिक' मतों की उत्सत्ति हुई।
"बायालु विजयसिंहो ४२, तेनाला हुंति एगगुरुभाया। सोमप्पह-मणिरयणा ४३, चउपालीसो अ जगचंदो ४४ ॥१४॥ देविदो पणयालो ४५, छायालीसो अधम्मघोसगुरू ४६ । सोमप्पह सगचत्तो, ४७, अड़चत्तो सोमतिलग गुरू ४८ ॥१५॥" 'अजितदेवसूरि के पट्ट पर विजयसिंहसूरि, विजयसिंहसू रि के पट्ट पर सोमप्रभसूरि तथा मणिरत्नप्रभसूरि नामक दोनों गुरु-भाई ४३वें पट्टधर हुए और उनके पट्टधर श्री जगच्चन्द्रसूरि हुए, जगच्चन्द्र के पट्ट पर श्री देवेन्द्रसूरि, देवेन्द्रसूरि के पट्ट पर श्री धर्मघोषसूरि, धर्मघोषसूरि के पट्ट पर श्री सोमप्रभसूरि और सोमप्रभसूरि के पट्ट पर ४८वें सोमतिलकसरि हुए । १४ । १५॥ ___ जगच्चन्द्रसूरि के समय में साधुनों में शिथिलाचार की वृद्धि हो रही थी, यह देखकर जगच्चन्द्रस रि को दुःख हुआ और चैत्रगच्छीय उपाध्याय
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