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________________ २८२ ] [ पट्टावली-पराग श्रावकों ने वैसा ही किया, मूर्ति दृष्टिगोचर हुई। अभयदेवसूरि ने जाकर भक्तिपूर्वक वन्दन किया और खड़े-खड़े "जय तिहुयण ०" इत्यादि नमस्कारद्वात्रिंशिका की रचना की, देवताओं ने कहा -- इसमें से दो नमस्कार पद्य हटा लो, क्योंकि उनके स्मरण से प्रत्यक्ष होना पड़ेगा, जो कष्टदायक होगा। प्राचार्य ने दो पद्य हटा लिये । समुदाय ने प्रतिमा को वहां स्थापन किया, देवालय वहां बन गया। श्री अभयदेवसूरि स्थापित १ पार्श्वनाथ तीर्थ प्रसिद्ध हो गया। स्तम्भनक से अभयदेवसूरि पाटन गए और "करडीहट्टी वसति' में ठहर कर स्थानांग प्रमुख नव आगमों की वृत्तियां निर्मित की, वृत्ति निर्माण में जहां कहीं सन्देह उत्पन्न होता वहां जया, विजया जयन्ती अपराजिता देवताओं को याद करते जिससे वे महाविदेह में तीर्थंकर के पास जाकर शंकित-स्थल को पूछ कर संशय दूर कर देती२ । अभयदेवसूरि के आने पर द्रोणाचार्य खड़े होते३ थे और चैत्यवासी - - १. गुर्वावली लेखक ने 'स्तम्भतीर्थ" को "स्थम्भनकपुर" समझ लिया है। उनको यह समझ लेना चाहिये था कि अभयदेवसूरि ने स्तम्भनपुर के परिसर में पार्श्वनाथ की स्थापना की थी। परन्तु मुसलमानों के गुजरात में फैलने के समय में स्तम्भनपूर से हटाकर पार्श्वनाथ को 'स्तम्भतीर्थ" में ले जाया गया था और लेखक के समय में तो क्या आज तक वे "स्तम्भतीर्थ' में ही विराजमान हैं, "स्तम्भनक' में नहीं। २. अभयदेवसूरि निर्मित वृत्तियों के सन्देहस्थल देवियों द्वारा तीर्थंकर को पूछवाकर निःसंदेह किये जाते थे, तब प्राचार्य अभयदेवसूरिजो ने द्रोणाचार्य प्रमुख पाटन के विद्वान् श्रमणों की समिति द्वारा अपनी सूत्र-वृत्तियां क्यों सुधरवाई, इसका गुर्वावली लेखक ने कुछ भी खुलासा नहीं किया, अभयदेवसूरिजी स्वयं तो स्थानांगवृत्ति में अपनी सूत्र-वृत्तियों का संशोधन करने वाली श्रमणसमिति की स्तुति करते हैं। तब गुर्वावली लेखक अभयदेव की वृत्तियों को तीर्थंकर के पास सुधरवाते हैं, यह कैसा गड़बड़झाला है। ३. अभयदेवसूरिजी के आने पर द्रोणाचार्य के खड़े होने और अभयदेवसूरिजी की प्रशंसा में पद्य लिखकर सर्व मठपतियों के पास भेजने सम्बन्धी लेखक की बात उसकी अन्धश्रद्धा का नमूना मात्र है, यदि लेखक ने स्थानांगवृत्ति का उपोद्घात पढ़ लिया होता तो वे इस प्रकार की हास्यजनक बातें कभी नहीं लिखते । ____Jain Education International 2010_05 For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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