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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २८३ maroo साधुनों के विरोध करने पर उन्होंने अभयदेवसूरिजी की प्रशंसा में एक पद्य बनाकर सर्व मठपतियों के पास पहुंचाया जिसे पढ़कर वे सब ठण्डे हो गये। पालडदा ग्राम के भक्त श्रावकों के यानपत्र डूबने की बात सुनकर अभयदेवसूरिजी ने यानगत्रों के मालिक-भक्तों को आश्वासन देते हुए कहा, चिन्ता न करियेगा, तुम्हारे जलयान कुशलतापूर्वक समुद्र पार उतर गए १ हैं । इस खुशी की बात को सुनकर यानों के मालिक बोले - किरानों से जितना लाभ होगा उसके आधे धन से हम सिद्धान्त लिखवायेगे। प्राचार्य ने कहा - अच्छी बात है, आपका यह कार्य मोक्ष का कारण है। ऐसा परिणाम करना ही चाहिए। कालान्तर में अभय देवमूरिजी वापस पाटन पाए। इस समय तक उनकी सर्व दिशाओं में सिद्धान्तपारंगत के रूप में प्रसिद्धि हो चुकी थी। उस समय प्राशो दुर्ग में श्री कूर्चपुरीय जिनेश्वर सूरि रहते थे। उस गांव में जितने श्रावकपुत्र थे वे सब जिनेश्वरसूरि की पौषधशाला में पढ़ते थे। वहां जिनवल्लभ नामक श्रावर पुत्र था, वह भी उसी पौषधशाला में पढ़ता था। जिनवल्लभ बुद्धिशाली लड़का था। उसकी मां को प्रलोभन देकर प्राचार्य ने उसे शिष्य बना दिया । व्याकरण, साहित्य आदि पढ़ाकर विद्वान् बना दिया । एक समय जिनेश्वर सूरि की गैरहाजिरी के समय में जिनवल्लभ ने एक धार्मिक सूत्र पढ़ा उसमें साधु को माधुकरी वृत्ति से निर्दोष आहार लेने का लिखा था। उसका चैत्यवास की तरफ से मन भंग हो गया, परन्तु अपने गुरु से इस विषय में कुछ भी चर्चा नहीं को। जिनवल्लभ १. पालडदा ग्राम के भक्तों के यानपात्र पार उतरने की बधाई भी लेखक के दिमाग की उपजमात्र है, अभयदेवसूरि सुविहित साधु थे, लेखक के जैसे शिथिल यति नहीं, जो व्यापार के लाभ का आधा भाग सिद्धान्त लिखने को देने की बात सुनकर उनका बार-बार समर्थन करते । अभयदेवसूरिजी की प्रागम वृत्तियां लिखवाने वाले अनेक गृहस्थ पाटन में थे, उनको उसके लिये - निमित्त भाषण द्वारा पालडदा के भक्तों को अनुकूल करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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