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________________ २८४ ] [ पट्टावली-पराग साहित्य में अच्छा तैयार हो गया था, फिर भी उसको धार्मिक सिद्धान्त पढ़ना शेष था। आचार्य ने अपने शिष्य जिनवल्लभ और जिनशेखर१ को अभयदेवसूरिजी के पास धार्मिक सिद्धान्त पढ़ने के लिए भेजा। मरुकोट होकर अनहिल पत्तन जाते हुए जिनवल्लभ ने वहां एक गृहदेवालय की प्रतिष्ठा को, फिर वहां से पाटन पहुँचे, गुरु को वन्दन किया। गुरु ने भी जिनवल्लभ को देखते ही चूडामणि ज्ञान से उसकी योग्यता परख ली और आने का कारण पूछा। उसने कहा-हमको गुरु ने आपके पास जैन सिद्धान्त को वाचना लेने भेजा है। प्राचार्य ने सोचा - चैत्यवासी का शिष्य है फिर भी योग्य है यह विचार कर उनका स्वागत किया। अच्छा दिन देखकर वाचना देना प्रारम्भ किया। गुरु के मुख से निकलते हुए सूत्रवाक्यों को वह अमृत समान मान कर संतुष्ट होने लगा। गुरु ने भी सच्छे प्रतीच्छक को पाकर प्रानन्द का अनुभव किया। रात-दिन पढ़ने तथा चिन्तन करने से सिद्धान्त वाचना थोड़े ही काल में पूर्ण हो गई। प्राचार्य का एक स्वीकृत ज्योतिषी विद्वान् था, उसने कहा - यदि आपके कोई योग्य शिष्य हो तो मुझे सौंप देना, मैं उसे ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान करा दूंगा। जिनवल्लभ उसको सौंप दिया गया। ज्योतिर्विद ने अपने पास जितना ज्योतिष का ज्ञान था, जिनवल्लभ को पढ़ा दिया। बाद में जिनवल्लभ ने अपने मूल गुरु के पास जाने को प्राज्ञा मांगी, गुरु ने कहा - जो कुछ सिद्धान्त का ज्ञान था, मैंने तुझे बता दिया है। अब ऐसा बर्तना जैसा कि सिद्धान्त में १. गुर्वावली लेखक ने जिनशेखर को जिनवल्लभ का वैयावृत्यकार (सेवा करने वाला) लिखा है, वास्तव में जिनशेखर जिनवल्लभ के गुरु-भाई थे साथ ही पढ़कर अच्छे विद्वान् बने थे, इसीलिए तो जिनवल्लभ के पट्ट पर सोमचन्द्र को प्रतिष्ठित करने का अधिक साधुओं ने विरोध किया था, क्योंकि जिनशेखर जिनवल्लभ के गुरु-भाई होने के उपरान्त विद्वान् भी थे। परन्तु आचार्य देवभद्र की जिनशेखर पर अवकृपा थी, इसलिए उन्होंने गच्छ के विरोध का विचार न करके जिनवल्लभ के पट्ट पर मुनिसोमचन्द्र को "जिनदत्तसूरि" बनाकर बैठा दिया, इसी के परिणाम स्वरूप अन्य गीतार्थ श्रमणों ने जिनशेखर को भी प्राचार्य बनाकर जिनवल्लभ का उत्तराधिकारी नियत कर दिया। जिनशेखर जिनवल्लभ का केवल वैयावृत्यकार होता तो यह बखेड़ा कभी नहीं होता। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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