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________________ ३९२ ] [ पट्टावली-पराग से विरुद्ध होकर उनके सामने “दया-धर्म के नाम से अपना मूर्तिपूजा विरोधी मत स्थापित किया था" और २२ वर्ष तक उन्होंने महेता लखमसी के सहकार से उसका प्रचार किया। सं० १५३२ में अपने पीछे भागजी को छोड़कर लौंका परलोकवासी हुए। भाणजी ने साधु का वेश लौंकाशाह के जीवनकाल में धारण किया था या उनके स्वर्गवास के बाद ? इसमें दो मत प्रतीत होते हैं। उक्त "दया-धर्म चौपाई ' में लौंका यति भानुचन्द्रजी ने सं० १५३२ में लौंकाशाह का स्वर्गवास माना है। लौंकाशाह ने खुद ने दीक्षा नहीं ली पर भाणा ने वेष-धारण किया था ऐसा चौपाई में लिखा है। इसके विपरीत लौंकागच्छ के यति केशवजी कृत लोकाशाह के सिलोके में लौंका द्वारा सं० १५३३ में भागजी को दीक्षा देने और उसी वर्ष में लौंका के स्वर्गवास प्राप्त करने का लिखा है। केशवर्षि-कृत लौं काशाहसिलोके में लेखक ने कुछ ऐतिहासिक बातें भी लिखी हैं इसलिए सिलोका के आधार से लौंकामत को कुछ बातें लिखते हैं सौराष्ट्र में नागनेरा नदी के तट पर आए एक गाव में हरिचन्द्र नाम का एक सेठ रहता था। उसको स्त्री का नाम मूगोबाई था । पूनमीया गच्छ के गुरु की सेवा से और शय्यद के आशीर्वाद से सं० १४७७ में उनके एक पुत्र हुमा जिसका नाम "लक्खा' दिया गया। लक्खा ज्ञानसागर गुरु की सेवा करता हुआ पढ़-लिखकर "लहिया" बना और वहीं पुस्तक लिखने का काम करने लगा। इस कार्य में लक्खा को द्रव्य की प्राप्ति होती थी, श्रत की भक्ति होती थी, और ज्ञान-शक्ति भी बढ़ती थी। आगम लिखतेलिखते उसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि “पागम में कहीं भी दान देने का विधान नहीं दीखता, प्रतिमा-पूजा, प्रतिक्रमण, सामायिक और पौषध भी मूल सूत्रों में कम दीखता है।" राजा श्रेणिक, कुरिणक, प्रदेशी तथा तु'गिया नगरो के श्रावक जो तत्वगवेषी थे उनमें से किसी ने प्रतिक्रमण नहीं किया, न किसी को दान दिया। सामायिक और पूजा एक ठट्ठा है, मौर यतियों की चलाई हुई यह पोल है, प्रतिमा-पूजा बड़ा सन्ताप है, इसको करके हम धर्म के नाम पर थप्पड़ खाते हैं। लक्खा को लोग "लुम्पक" कहते हैं सो ठीक ही है, क्योंकि वह प्रविधि का लोप करने वाला है । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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