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________________ ३३८ ] [ पट्टावली-पराग विधिचत्य में अजितनाथ को यात्रा की। पाठ दिन तक संघ वहां ठहरा और इन्द्रमाला द्विवल्लक १२००० द्रम्म में पहनी गई, खम्भात से प्रस्थान कर संघ शून्य प्रदेशों में चलता हुआ शत्रुञ्जय की तरफ आगे बढ़ा, बोच में आने वाले धन्धूका नगर में ठ. उदयकरण श्रावक ने संघ वात्सल्य आदि किया। क्रमश: संघ शत्रुञ्जय की तलहटी में पहुंचा, वहां से श्रीपूज्य शत्रुञ्जय पर चढ़े और दूसरी बार श्री युगादिदेव की यात्रा की। दस दिन तक संघ वहां ठहरा और इन्द्रपदादि के चढावे किये। श्री युगादिदेव के भण्डार में देकर विधि-संघ ने १५ हजार द्विवल्लक द्रम्म सफल किये, अपने युगादिदेव के विधि-चैत्य में नई तैयारी हुई। २४ देवगृहिकाओं पर श्रीपूज्य ने कलश-ध्वजारोप किया, इसके अनन्त र श्रीपूज्य संघ के साथ तलहटी में पाए, बाद में सर्व संघ पाया उसी रास्ते गया । क्रमशः सेरीशे होकर शंखेश्वर पहुँचे। वहां चार दिन ठहर कर ध्वजारोप आदि करके संघ के साथ श्री जिनकुशलसूरि श्रावण शुवल ११ को भीमपल्ली पहुँचे? । देशान्तरीय यात्रिकगण अपने-अपने स्थान पहुँचे । जिनचन्द्रसूरिजी ने यात्रा निमित्त दो बार चातुर्मास्य में भ्रमण करने के जो अपवाद सेवन किये थे उन पर टिप्पण करते हुए हम लिख पाये हैं कि चातुर्मास्य में इधर उधर होने की अनागमिक रीति योग्य नीं है, हमारे उस कथन के अनुसार ही परिणाम प्राया, जिनचन्द्रसूरिजी दो बार इधर-उधर हुए थे तब उनके पट्टधर श्री जिनकुशलसूरिजी ने भी चातुर्मास्य में दो बार यात्रार्थ भ्रमण किया। __ प्रथम योगिनीपुर निवासी सा० रयपति के संघ के साथ सौराष्ट्र तीर्थ की यात्रा के लिए जाकर वापस भ्राद्रपद वदि ११ को पाटन पहुंचे थे और चातुर्मास्य वहां पर पूरा किया था। दूसरी बार भीमपल्ली निवासी सा० वीरदेव के संघ के साथ उन्हीं तीर्थो की यात्रा करने गये और श्रावण शुल्क ११ को वापिस भीमपल्ली में प्रवेश किया था। ___ इसी प्रकार खरतरगच्छ के प्राचार्यो' ने नाम मात्र का निमित्त पाकर चौमास में इधर उधर जाने में पाप नहीं समझा और खूबी यह है कि इनके पिछले गुर्वावलीकार लेखक "रायाभियोगेणं" इस प्रागार को आगे कर इस अनुचित प्रवृत्ति का बचाव करते हैं, उनको समझ लेना चाहिये कि इन बातों में "राजाभियोग, गणाभियोग" लागू ही नहीं होता । राजा साधुओं को वर्षाकाल में इधर उधर Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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