________________
राजविजयसूरि-गह की पहावली
५८ चे पाट पर श्री आनन्द विमलसूरि हुए, एक समय पाबु पर यात्रार्थ गये, सूरिजी तुर्मुख चैत्य में दर्शन कर विमल वसही के दर्शनार्थ गए, गभारा के बाहर खड़े दर्शन कर रहे थे, उस समय अर्बुदादेवी श्राविका के रूप में प्राचार्य के दृष्टिगोचर हुई, आचार्यश्री ने उसे पहिचान लिया मोर कहा-देवी ! तुम शासन भक्त होते हुए लुगा के अनुयायी जिनमन्दिर और जिनप्रतिमाओं का विरोध करते हुए, लोगों को जैन मार्ग से श्रद्धाहीन बना रहे हैं, तुम्हारे जैसों को तो ऐसे मतों को मूल से उखाड़ डालना चाहिये, यह सुनकर देवी बोली-पूज्य ! में आपको सहत्रोषधि का चूर्ण देती हूं। वह जिसके सिर पर आप डालेंगे, वह प्रापका श्रावक बन जायगा पोर मापकी आज्ञानुसार चलेगा, इसके, बाद अबुंदादेवो आचार्यश्री को योग्य भलामण देकर अदृश्य हो गई, बाद में प्राचार्य वहां से विहार करते हुए विरल (विसल) नगर पहुंचे, वही श्री विजयदानसूरि चातुर्मास्य रहे हुए थे, वही माकर मानन्दविमलसूरिजी ने देवी प्रश्नादिक सब बातें विजयदानसूरिजी को सुनायी, जिससे वे भी इस काम के लिये तैय्यार हुए, वहां से पानन्दविमलसूरि और विजयदानसूरि अहमदाबाद के पास गांव बारेजा में राजसूरिजी के पास आए और कहा-हम दोनों लुका मत का प्रसार रोकने के कार्यार्थ तत्पर हैं, तुम भी इस काम के लिये तैयार हो जानो, यह कहकर श्री प्रानन्दविमलसूरिजी ने कहा मेरे पट्टधर विजयदानसूरि हैं ही मोर विजयदानसूरि के उत्तराधिकारी श्री राजविजयसूरि को नियत करके अपन तीनों प्राचार्य तपगच्छ के मार्ग की मर्यादा निश्चित करके अपने उद्देश्य के लिये प्रवृत्त हो जाएं, मानन्दविमलसूरिजी ने श्री राजविजयसूरि को कहा-तुम विद्वान् हो इसलिये हम तुम्हारे पास पाए हैं, लुकामति जिनशासन का लोप
___Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org