SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ ] [ पट्टावली-पराग कल्लित अर्थ लगाकर अपने प्राचार्यों का महत्त्व बढ़ाया है, इस सम्बन्ध में एक दो दृष्टान्त देकर इस चर्चा को पूरा कर दिया जायगा । १. बृहद् गुर्वावली में सं० १२४४ की हकीकत में पाटन के रहने वाले "व्यवहारी अभयकुमार सेठ" को खरतरगच्छ का एक अनुयायी भरणशाली कहता है - 'अभयकुमार ! तुम हमारे स्वजन हो, करोडपति हो और राजमान्य हो, परन्तु इससे हमको क्या फायदा, जो हमारे गुरुयों को गिरनार, शत्रुञ्जय आदि तीर्थो की यात्रा नहीं करवाते ।" भरणशाली की इस बात से उत्साहित होकर अभयकुमार ने उसे आश्वासन दिया और महाराजा भीमदेव तथा उनके "प्रधान मन्त्री जगद्देव पडिहार" को मिलकर अजमेर से संघ निकलवाने की राजाज्ञा लिखवायी और अजमेर के खरतरगच्छ संघ तथा जिनपतिसूरि के नाम दो पत्र लिखकर अपने लेखवाहक द्वारा अजमेर के संघ के पास भेजे, अभयकुमार मार्फत श्रायी हुई राजाज्ञा तथा अभयकुमार के पत्रों को पढ़कर अजमेर के संघ के साथ जिनपतिसूरिजी ने यात्रा के लिए प्रयाण किया और वहां से सीधे प्राबु के निकटवर्ती चन्द्रावती होकर माशापल्ली प्राये मौर खंभात होते हुए, सौराष्ट्र के तीर्थों में गये, वहां की यात्रा करके संघ वापस प्राशापल्ली होता हुआ अन्त में पाटन श्राया, भोर वहां से अपने स्थान अजमेर पहुँचा तब "ऐतिहासिक महत्त्व लेखक" "पाटन से ही अभयकुमार की तरफ से संघ निकलवाता है । यह झूठा प्रचार नहीं तो क्या है ? राजाज्ञा अजमेर पहुंचाने के बाद अभयकुमार का संघ के प्रकरण में कहीं नाम तक नहीं मिलता तब लेखक प्रभयकुमार द्वारा संघ निकलवाने की बात करते हैं, खरी बात तो यह है कि "खरतरगच्छ के पट्टधर प्राचार्यों के पाटन माने पर राजकीय प्रतिबन्ध लगा हुआ था, " इसलिए संघ पाटन होकर ही नहीं पाटन राज्य की हद में होकर भी जा नहीं सकता था, इसलिए अभयकुमार ने राजाज्ञा अजमेर भेजी थी । श्रभयकुमार स्वयं पाटन से संघ निकालता तो राजाज्ञा अजमेर क्यों भेजता ? मौर अजमेर का संघ पाटन को छोड़कर सीधा तीर्थों में क्यों जाता । २. " सं० १२८६ में श्री जिनेश्वरसूरिजी के खम्भात जाने पर महामात्य वस्तुपाल द्वारा उनका समारोह से नगरप्रवेशोत्सव किया गया था, " Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy