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(१) वर्द्धमानसूरि -
वर्द्धमानसूरिजी का वास्तविक इतिहास गुर्वावली में नहीं मिलता उनके सम्बन्ध में केवल इतना ही लिखा है कि वे अम्भोहर देश के जिनचन्द्राचार्य के शिष्य थे। जिनचन्द्र चैत्यवासी थे, परन्तु वर्धमान को चैत्यवास पसन्द नहीं आया । गुरु की आज्ञा से कुछ साधुओं के साथ वे दिल्ली की तरफ गए । उस समय बहां उद्योतनाचार्य नामक नाचार्य विचर रहे थे । वर्धमान ने उनके पास आगम का अध्ययन किया और उन्हीं से चारित्रोपसम्पदा लेकर संविग्न विहारी के रूप में विचरने लगे ।
एक समय वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वर गरिए ने अपने गुरु को गुजरात की तरफ विहार करने की सलाह दी और भामह श्रादि व्यापारियों के बड़े काफले के साथ वर्धमानसूरि आदि अट्ठारह साधुनों ने विहार किया । क्रमशः वे सब गुजरात की राजधानी राहिल पत्तन पहुँचे और शुल्कमण्डपका में ठहरे। उनके लिए पाटन एक विदेश था । न कोई उनका भक्त, न कोई परिचित । कुछ विश्रान्ति लेने के बाद, पण्डित जिनेश्वर गुरु की आज्ञा लेकर नगर में गए और एक बड़ा मकान देख कर वहां पहुंचे । मकान राजपुरोहित का था। जिनेश्वर ने पुरोहित से वार्तालाप करके अपना परिचय दिया, पुरोहित ने अपने चतुश्शाल मकान में किनायत बंधवा के सब साधुयों को वहां ठहराया। नगर में बात फैल गई कि पाटन में वसतिपालक साधु श्राये हैं । चत्यवासी प्राचार्यों ने सोचा, अपरिचित हरिक साधुओं का यहां रहना हानिकर होगा। उन्होंने उनको वहां से निकालने के अनेक प्रपंच किये, पर सफलता नहीं मिली । अन्त में दुर्लभराज की सभा में प्रागन्तुक तथा स्थानीय साधुनों के बीच चैत्य में रहने न रहने के सम्बन्ध में चर्चा हुई । जिनेश्वर गरिण ने शास्त्रों के प्राधार से
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