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[ पट्टावली-पराग
आचार्य ने भविष्य सोचा कि मेरे गच्छ में दो टुकड़े होने वाले हैं, तब क्यों मैं स्वयं अपने हाथ से दूसरा गच्छ कायम न कर दू ! इसी समय के दर्मियान श्रीमालों के संघ ने मिल कर विचार किया। अपने देश में कोई गुरु माते नहीं, चलो गुरु के पास गुरु को ले पायें। श्रीमाल संघ गुरु के पास गया और वन्दनपूर्वक विज्ञप्ति की कि-स्वामी ! हमारे देश में कोई गुरु नहीं पाते, तब हम क्या करें - गुरु के बिना ? धर्मसामग्री कैसे जुड़े ? संघ की बात सुनकर प्राचार्य ने श्रीमालवंशज जिनसिंह गणि को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। "जिनसिंहसूरि" यह नाम देकर प्राचार्य ने कहा-लो श्रावकोः ये मैंने तुम्हें अर्पण कर दिये। सूरि से कहा - इनके साथ विहार कर इनके देश में जाम्रो। जिनसिंहसूरि ने श्रावकों के साथ विहार किया । श्रीमाली संघ ने कहा- प्राज से लेकर हमेशा के लिए ये हमारे धर्माचार्य रहेंगे। इस प्रकार निनेश्वरसूरि के शिष्यों से दो गच्छ हुए। १२८० के वर्ष में जिनेश्वरसूरि ने जिनसिंह को प्राचार्य बनाया और पद्मावती के मन्त्र का उपदेश दिया। कुछ वर्षों के बाद जिनेश्वरसूरि स्वर्गवासी हुए ।
- प्रबन्धकार ने प्रारम्भ में हो "जिनपतिसूरि पढें नेमिचन्द्र भण्डारी जिणेसरसूरीणो पिया संजानो" इस प्रकार का अपपाठ लिखा है । लिखना तो यह चाहिए था कि "नेमिचन्द भण्डारी पुत्तो जिणेसरसूरी सजागो' परन्तु जिस प्रबन्ध-लेखक को लिंग-वचन-विभक्ति का भी भान नहीं है उसको इस प्रकार का प्रपपाठ लिखना पाश्चर्य क्या है। वह जो लिखे, भक्तों को सच्चा मान लेना चाहिए।
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