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तृतीय-परिच्छेद ]
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परन्तु उसी मौके पर एक विद्यासिद्ध योगी भिक्षार्थ आया, संघ प्रतिष्ठा के कार्य में व्यग्रचित्त था, किसी ने भिक्षा नहीं दी, योगी रूठ गया। मूल नायक बिम्ब को कीलित कर दिया, प्रतिष्ठा की लग्नवेला में सर्व संघ उठने लगा पर बिम्ब नहीं उठा, संघ चिन्तातुर हो योगी की तलाश करने लगा, पर वह कहीं भी नहीं मिला, उस समय एक महत्तरा साध्वी प्राचार्य की वन्दन कर बोली - भगवन् ! संघ हँसता है। वह कहता है हमारे भट्टारक बालक हैं. ऐसी कोई विद्या नहीं जानते क्या किया जाय, यह सुनकर जिनपतिसूरि सिंहासन से उठे और सूरिमन्त्र से अभिमन्त्रित घास बिम्ब के मस्तक पर डाला, तत्काल एक श्रावक ने बिम्ब को उठा लिया बिम्बप्रतिष्ठा-महोत्सव समाप्त हुमा । खरतर गच्छ में जय-जय शब्द उछल गया।
जिनपतिसूरि ने राजसभा में ३६ वाद जीते। खरतरगच्छ सामाचारो का उद्धार किया, जिनवल्लभ कृत संघपट्टक प्रकरण की टीका वनाई। इस प्रकार महाप्रभावक हुए।
जिनपति-प्रबन्ध में बारह वर्ष को अवस्था में जिनपति को पट्ट. प्रतिष्ठित करने का लिखा है, तब गुर्वावली में १३ वर्ष की अवस्था में । यह तो एक सामान्य मतभेद है, परन्तु योगी द्वारा मूर्ति का स्थगित करना और जिनपति द्वारा वासक्षेप डाल कर एक श्रावक के उठवाने की बात एक चमत्कारी टुचका है। मालूम होता है, लेखक को चमत्कारों की बात लिखने में बड़ा आनन्द प्राता होगा । जिनपतिसूरि का वृत्तान्त लिखने में बृहद्-गुर्वावलीकार ने लगभग २० पृष्ठ भर दिये हैं, परन्तु यह चमत्कार नहीं लिखा कि इनके वासक्षेप डालने से योगो-कीलित जिनमूर्ति को एक श्रावक ने उठा लिया। इस पर से पाठकगण प्रबन्ध-लेखक की बातों के सत्यासत्य का निर्णय स्वयं कर लेंगे ।
(८) माठवां प्रबन्ध जिनेश्वरसूरि के सम्बन्ध में है। जिनपतिसूरि के पट्ट पर नेमिचन्द्र भण्डारी के पुत्र जिनेश्वरसूरि हुए। जिनेश्वर के दो शिष्य थे, एक श्रीमाल जिनसिंहमूरि, दूसरा पोसवाल जिनप्रबोधसूरि । एक समय जिनेश्वरपूरि का दण्ड अकस्मात् टूट कर दो टुकड़े हो गये, इससे
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