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[पट्टावली-पराग
तत्तय थिरचरितं, उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्तं । देसिरिण खमासमरणं, माढरगुत्तं नमसामि ॥११॥ तत्तो प्रणुप्रोगधरं, धीरं मइसागरं महासत्तं । थिरगुत्तखमासमणं, वच्छसगुत्तं परिणवयामि ॥ १२ ॥ तत्तो य नाण-दसरण-चरित्त-तव सुट्टियं गुणमहंत । थेरं कुमारयम्म, वंदामि गरिंग गुणोवेयं ॥ १३ ॥ सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममद्दवगुरणेहि संपन्ने ।
देविडिखमासमणे, कासवगुत्ते परिणवयामि ॥१४॥" 'गौतमगोत्रीय फल्गुमित्र, वासिष्ठगोत्रीय धनगिरि, कुत्सगोत्रीय शिवभूति और कौशिकगोत्रीय दुर्ज पन्तकृष्ण को वन्दन करता हूं। उनको मस्तक से वन्दन कर काश्यपगात्राय भद्र, नक्षत्र और रक्ष को नमस्कार करता हूँ। गौतमगोत्रीय आर्य नाग, वासिष्ठगोत्रीय आर्य जेष्ठिल, माठरगोत्रीय विष्णु और गौतमगोत्रीय कालक स्थविर को वन्दन करता हूँ। गोन गोत्रोध कुमारधर्म, संपलित और आर्यभद्र को वन्दन करता हूँ, उनको मस्तक रो वन्दन कर स्थिरसत्त्ववान् तथा चारित्र, ज्ञान से सम्पन्न गौतमगोत्रीय संघालित स्थविर को प्रणिपात करता हूँ। काश्यपगोत्रीय मार्यहस्तो को नन्दन करता हूँ, जो क्षमा के सागर और धीर पुरुष थे और जो चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में कालधर्म प्राप्त हुए थे। शोललब्धि से सम्पन्न, सुबनगोत्रीय आर्यधर्म को नमस्कार करता हूँ, कि जिनको दीक्षा के समय में देव ने उनके ऊपर छत्र धारण किया था, काश्यपगोत्रीय हस्ती और शिवसाधक धर्म को प्रणिपात करता हूँ तथा काश्यपगोत्रीय सिंह तथा काश्यपगोत्रीय धर्म को भी वन्दन करता हूँ। उनको नमन करने के उपरान्त स्थिर सत्त्ववान् और चारित्र-ज्ञान से सम्पन्न गौतमगोत्रीय स्थविर आर्य जम्बू को नमस्कार करता हूँ। कोमलप्रकृति, मार्दवसम्पन्न, ज्ञान, दर्शन, चारित्र में उपयोगवान् ऐसे काश्यपगोत्रीय स्थविर नन्दित को भी प्रणिपात करता हूँ। इनके बाद स्थिरचारित्र, उत्तम सम्यक्त्व तथा सत्त्वसंयुक्त माठरगोत्रीय देसिगणि क्षमाश्रमण को नमन करता हूँ, तदनन्तर
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