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प्रथम- परिच्छेद ]
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हो जाता है, इसलिए प्रस्तुत कल्पस्यविरावली की परम्परा लिखने के पहले जैनकालगणना पर चार शब्द लिख देना उचित समझते हैं ।
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जैन कालगणना पद्धति दो परम्परानों पर चलती है । एक तो युगप्रधानों के युगप्रधानत्व पर्याय काल के आधार पर और दूसरी राजाओं के राजत्वकाल की कड़ियों के आधार पर । निर्वारण के बाद की दो मूल परम्परात्रों में जो अनुयोगधरों की परम्परा चली है उसके वर्षों की गणना कर जिननिर्वाण का समय निश्चित किया जाता था । परन्तु जैन श्रमण स्थायी एक स्थान पर तो रहते नहीं थे, पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम भारत के सभी प्रदेश उनके विहारक्षेत्र थे । कई बार अनेक कारणों से श्रमणगरण एक दूसरे से बहुत दूर चले जाते थे और वर्षों तक उनका मिलना असंभव बन जाता था, ऐसी परिस्थितियों में जुदे पड़े हुए श्रमरणगरण अपने अनुयोग धर-युग प्रधानों का समय याद रखने में असमर्थ हो जाते थे, इसलिए युगप्रधानत्वकाल शृंखला के साथ भिन्न भिन्न स्थानों के प्रसिद्ध राजानों के राजत्वकाल की श्रृंखला भी अपने स्मरण में रखते थे । इतनी सतर्कता रखते हुए भी कभी कभी सुदूरवर्ती दो श्रमण संघों के बीच कालगणनासम्बन्धी कुछ गड़बड़ी हो ही जाती थी । भगवान् महावीर के समय में उनका श्रमण-संघ भारत के उत्तर तथा पूर्व के प्रदेशों में अधिकतया विचरता था । प्रार्य भद्रबाहु स्वामी के समय तक जैन श्रमणों का विहारक्षेत्र यही था, परन्तु मौर्यकालीन भयंकर दुष्कालों के कारण श्रमण संघ पूर्व से पश्चिम की तरफ मुड़ा और मध्य भारत के प्रदेशों तक फैल गया, इसी प्रकार सैकड़ों वर्षों के बाद भारत के उत्तर-पश्चिमीय भागों में दुष्काल ने दीर्घकाल तक अपना अड्डा जमाए रक्खा | परिणाम स्वरूप जैन श्रमणसंघ की दो टुकड़ियां बन गई । एक टुकड़ो सुदूर दक्षिण की तरफ पहुँची और वहीं विचरने लगी, तब दूसरी टुकड़ी जो अधिक वृद्ध श्रुतधरों की बनी हुई थी, भारत के मध्य प्रदेश में रहकर विषम समय व्यतीत करती रही । विषम समय व्यतीत होने के बाद मध्यभारत तथा उत्तर भारत के भागों में विचरते हुए श्रमण ' मथुरा' में सम्मिलित हुए। थोड़े वर्षों के बाद दाक्षिणात्य प्रदेश में घूमने वाले श्रमण भी पश्चिम भारत की तरफ मुड़े और
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