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[ पट्टावली पराग
की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में हुई, उस समय तक संभवतः यशोभद्रस्थविर स्वर्गवासी हो चुके थे, और आर्य संभूतविजयजी भी या तो परलोकवासो हो चुके हों अथवा वार्द्धक्य के कारण कहीं पर वृद्धावास के रूप में ठहरे हुए हों । क्योंकि पाटलिपुत्र के श्रमणसंघ ने दृष्टिवाद पढ़ाने के लिए दो बार भद्रबाहु के पास 'श्रमण संघाटक' भेजकर उन्हें दृष्टिवाद पढ़ाने की विज्ञप्ति की । यदि उस समय स्थविर सम्भूतविजयजी जीवित होते और दृष्टिवाद पढ़ाने की स्थिति में होते तो पाटलीपुत्र का संघ दूसरा संधाटक भद्रबाहु के पास कभी नहीं भेजता, क्योंकि भद्रबाहु ने प्रथम संघाटक के सामने ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि "मैं महाप्राण ध्यान की साधना में लगा हुआ हूं । अतः पाटलिपुत्र पा नहीं सकता", इस पर भी पाटलिपुत्र का श्रमणसंघ दूसरी बार भद्रबाहु के पास संघाटक भेजकर दबाव डालता है। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि उस समय भद्रबाहु को छोड़कर अन्य कोई भी दृष्टिवाद का अनुयोगधर विद्यमान नहीं होना चाहिए।
आर्य संभूतविजयजी के शिष्य आर्य स्थूलभद्र राजा नन्द के प्रधान मंत्री शकटाल के बड़े पुत्र थे। इन्होंने अपने पिता के मरण के बाद तुरंत
आर्य संभूतविजयजी के पास श्रमणमार्ग स्वीकार किया था और चौदह पूर्व का अध्ययन प्रार्य श्रीभद्रबाहुस्वामी के पास किया था। इससे भी यही सूचित होता है कि स्थूलभद्र की दीक्षा होने के बाद थोड़े ही वर्षों में आर्य संभूतविजयजी स्वर्गवासी हो गये थे। यहाँ प्रार्य श्रीभद्रबाहु स्वामी के स्वर्गवाससमय के संबंध में हमें कुछ स्पष्टीकरण करना पड़ेगा।
प्रसिद्ध आचार्य श्रीहेमचन्द्र सूरिजोने श्रीभद्रबाहुस्वामी का स्वर्गवास परिशिष्ट पर्व में "जिननिर्वाण से १७० वें वर्ष में होना लिखा है और इसी कथन का आधार लेकर डॉ० चापेण्टियर,हन जेकोबि और इनके पीछे चलने वाले विद्वानों ने भगवान् महावीर के निर्वाणसमय में से ६० वर्ष कम करके जिननिर्वाण का समय सूचित किया है । परन्तु इसको ठोक मानने पर जैन परम्परा में जिस कालगणना के अनुसार निर्वाण संवत् और युगप्रधान स्थविरावलियों का मेल मिलाया गया है, वह सब एक दूसरे से असंगत
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